कौन हैं राधा बहन भट्ट ? जिन्हें मिला है पद्मश्री सम्मान।

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Radha Bahan : पद्मश्री से सम्मानित उत्तराखंड की 91 वर्षीय राधा बहन भट्ट को प्रमुख गांधीवादियों में शुमार किया जाता है। जिन्होंने बालिका शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण जैसे गंभीर मुद्दों पर महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। वे देश-दुनिया के शीर्षस्थ गांधीवादी संस्थाओं और संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर रही हैं और इन पदों की जिम्मेदारियों का निर्वाह एक मिसाल की तरह करती रही। यही वजह थी कि उनका नाम नोबल पुरस्कार के लिए मनोनीत होने वाली सौ महिलाओं की सूची में शामिल किया गया था।

राधा बहन ने उत्तराखंड समेत देश के विभिन्न हिस्सों में गांधीवादी मूल्यों के जरिये बालिका शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और पर्यावरण संरक्षण को सुदृढ़ करने के लिए अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने पहाड़ के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में 25 बाल मंदिरों को स्थापना कर 15,000 से अधिक जरूरतमंद बच्चों को शिक्षा से जोड़ा है। उनके द्वारा अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ जिलों में करीब 1,60,000 पौधरोपण कर पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दिया है। राधा बहन ने चिपको आंदोलन, शराब विरोधी आंदोलन, ग्राम स्वराज की स्थापना के लिए लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाया। इसी को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।

राधा बहन ( Radha Bahan) ने सन 2006 से 2010 के बीच उत्तराखंड की नदियों और हिमालय का सर्वेक्षण किया और यहाँ की नदियों में बन रहे हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का पुरजोर विरोध भी किया। वर्तमान में राधा बहन कौसानी और इसके आसपास के क्षेत्रों में ‘नौला संरक्षण’ पर कार्य कर रही हैं। उनका उद्देश्य पहाड़ के सूख चुके नौलों को पुनर्जीवित करना है।

जीवन परिचय

राधा बहन भट्ट का जन्म अल्मोड़ा जिले के धुरका ग्राम में 16 अक्टूबर 1933 को माता रेवती भट्ट और पिता कमलापति भट्ट घर हुआ था। गांव में विद्यालय न होने के कारण इनकी पढ़ाई नैनीताल जिले के रामगढ़ में हुई। राधा दीदी और उनके बड़े भाई को यहाँ दादा की निगरानी में पढ़ने के लिए रखा था। वे छुट्टियों में अपने गांव धुरका लौटते थे। साठ-सत्तर मील की यात्रा पैदल ही करते थे। घर पहुंचते-पहुंचते उन्हें रास्ते में दो-दो रातें अनजान गांवों में पड़ाव डालना पड़ता था। इन भाई-बहनों को इन्हीं दिनों में हल्द्वानी मंडी से साल भर की जरूरत के लिए गुड़ लाने वाले जत्थे मिल जाते, जिससे इनकी यात्रा न सिर्फ सुरक्षित और मजेदार बल्कि आसान हो जाती थी।

बचपन में अल्मोड़ा जिले में अपने गांव धुरका से नैनीताल जिले के रामगढ़ तक की लंबी पदयात्रा से लेकर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन और उत्तराखंड में चिपको आंदोलन, शराबबंदी और खनन व नदी बचाओ जैसे आंदोलनों के दौरान की गई पदयात्राओं ने राधा दीदी के व्यक्तित्व का निर्माण किया है।

बचपन में बड़े भाई और बाद में सरला बहन, फिर कौसानी के लक्ष्मी आश्रम की बच्चियों के साथ और अब देश भर में जगह-जगह चल रहे विभिन्न आंदोलनों के लिए चलने वाली यात्राओं में भी वे शरीक होने में वे हमेशा आगे रहती हैं।

राधा दीदी बताती हैं “मैं हर साल बड़े उत्साह से इन दिनों की प्रतीक्षा करती थी जब गांवों के बीच ऐसी टोली के साथ हम फिर से पैदल चलते। गांव, उनके लोग व उनके सोच के प्रति मेरी रूचि जागी थी, पहली बार नौ-दस वर्ष की लड़की की शादी और विदाई पर उस बच्ची का जोर से चिल्ला-चिल्ला कर रोना भी मैंने तभी देखा था और मन की मन दृढ़ता से सोचा था कि मैं नहीं करूंगी शादी।

वे अपने इस संकल्प पर टिकी रहीं। राधा दीदी ने तय कर लिया कि वह आजीवन समाज सेवा ही करेंगी। “सार्वजनिक जीवन में महिलाओं को भी बेहतर से बेहतर काम के लिए आगे आना चाहिए”, यह संदेश उन्हें बचपन में आर्य समाज के स्कूल में पढ़ते हुए मिल गया था, जिसे राधा दीदी ने अपने जीवन में चरितार्थ करके दिखाया। स्कूल में राधा दीदी अपनी पाठय-पुस्तकों में रमी रहतीं लेकिन सार्वजनिक जीवन का पहला पाठ उन्होंने इन यात्राओं में ही पढ़ा। ये जत्थे जिस गांव में रूकते वहां राधा दीदी ही घर-घर जाकर खाने के बर्तन और अन्य जरूरतों के लिए गृह स्वामियों से संपर्क करतीं। विश्राम के दौरान विभिन्न विषयों पर चर्चा होती। मसलन स्त्री-शिक्षा, आर्य समाज, गांधी और देश-विदेश के बारे में चर्चा होती।

राधा बहन 17 वर्ष की उम्र में सन 1951 में घर छोड़ कर कौसानी आ गई और लक्ष्मी आश्रम में प्रवेश किया। उन्होंने यहीं सबसे पहले भूदान पदयात्रा के बारे में जाना। यात्रा से दीदी को तो कोई बैर कभी रहा नहीं, वे भूदान और ग्रामदान यात्राओं में शरीक होने लगी। इसके बाद तो उनकी यात्राओं का अंतहीन सिलसिला चल पड़ा।

उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और असम में सैकड़ों किलोमीटर पैरों से ही नाप लिया। इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्हें देश भर के सर्वोदय साथियों को भी करीब से जानने का मौका मिला। इन यात्राओं का जिक्र चलता है तो राधा दीदी अक्सर कहती हैं, “सरला बहन के साथ पदयात्रा करना जीवन को गढ़ने की एक सचल पाठशाला होती थी, एक जंगम विद्यापीठ होती थी।” पचास के दशक में उन्होंने सरला बहन के साथ सघन यात्राएं की।

Radha Bahan क्यों आ गई आश्रम

लक्ष्मी आश्रम में राधा दीदी के आने की कहानी भी अलग है। पिता ने उन्हें यहां इसलिए पहुंचा दिया था कि वह आश्रम के कड़े नियमों के सामने घुटने टेक देगी और अपने थैले-बिस्तर लेकर घर वापस लौट आएगी तब तो फिर वह शादी के लिए भी तैयार हो जाएगी। गांव के आसपास स्कूल कॉलेज नहीं होने के कारण उनके पिता को अपनी बेटी को बहुत दूर भेज कर पढ़ाने में न कोई दिलचस्पी थी और न सामर्थ्य ही था।

लेकिन ऊँची शिक्षा लेने की जिद पर अड़ी बेटी के सामने वे विवश थे। लक्ष्मी आश्रम में राधा दीदी भले ही आगे की शिक्षा के लिए आई थीं, पर उन्हें अपने से छोटियों को शिक्षित करने में लगा दिया। सरला बहन ने आश्रम आते ही राधा दीदी को अंग्रेजी पढ़ने और कविता लेखन आदि से भी परहेज करने की हिदायत दे दी। ऐसी-ऐसी कई पाबंदियों और कई कड़े नियमों को अपनाते हुए राधा दीदी ने खुद को आश्रम के मुताबिक जल्दी ही ढाल लिया और इसके बाद वह कभी भी उस तरह से घर नहीं लौटी, जैसी उम्मीदों से उनके पिता भरे हुए थे। वह खुद भी नहीं लौटीं और अपनी अन्य बहनों को भी आश्रम से जोड़ा।

आश्रम की लोकप्रिय शिक्षिका

यह राधा दीदी ही थीं जो अपनी बुद्धिमता, श्रम निष्ठा और सरल-सहज व्यवहार की वजह से बहुत जल्दी ही आश्रम की एक लोकप्रिय शिक्षिका बन गईं। हालांकि आश्रम में गांधी प्रणीत बुनियादी शिक्षा का ही इंतजाम था, लेकिन उन्होंने इसे भी जल्दी समझ लिया और कौसानी से अकेले ही प्रशिक्षण के लिए सेवाग्राम भी गई। तब अकेली लड़कियां गांव-गली-मुहल्ले की यात्रा अकेले नहीं करती थी, पर राधा दीदी ने इसे कोई चुनौती नहीं समझा। वह निर्भीक होकर सेवा ग्राम पहुंच गईं।

राधा बहन ने तब ही पहली बार रेल का दर्शन भी किया था और उस पर यात्रा भी की थी। राधा दीदी ने अब तक जो भी शिक्षा हासिल की थी, वह आर्य समाज स्कूल के बंद कमरों में, लेकिन आश्रम में उन्होंने देखा कि बच्चियां पेड़ के नीचे अपनी शिक्षिकाओं से शिक्षा लेती थी। शिक्षा हासिल करने का यह मुक्त स्वरूप राधा दीदी को बहुत भाया। इसी के साथ उन्हें खुले मन की सरला बहन जैसी गुरू मिली। लक्ष्मी आश्रम वास्तव में सिर्फ सरला बहन की ही नहीं, बल्कि राधा दीदी के निरंतर कोशिशों की स्मृतियों का भी केंद्र है। सालों पहले स्थापित इस आश्रम की स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया का इससे ही अंदाजा लग सकता है कि इसे एक विदेशी युवती ने शुरु किया और उसकी उतराधिकारी एक पर्वतीय युवती राधा बहन बनीं।

23 सालों तक इसके संचालन के बाद जब राधा बहन के कंधे पर देश भर की संस्थाओं-संगठनों की जिम्मेदारी बढ़ती गई तो इन्होंने आश्रम का जिम्मा नीमा वैष्णव को सौंप दिया। सरला बहन विदेशी थीं लेकिन उन्होंने देशज संस्कृति को आत्मसात कर लिया था। वे जब भारत छोड़ कर गईं तो भी राधा भट्ट उनसे लगातार पत्राचार से मार्गदर्शन लेती रहीं। यह पत्राचार अब पुस्तकाकार है, जिसे पढ़ने से राधा दीदी और सरला बहन के बीच के संबंधों का ही नहीं बल्कि बदलते विरासत होते लक्ष्मी आश्रम के निखरते नए स्वरूपों का भी दिग्दर्शन हो जाता है।

चिपको आंदोलन में सक्रिय भागीदारी

आश्रम अपने नए-नए परिवर्तनों के साथ आगे बढ़ ही रहा था कि उत्तराखंड में चिपको आंदोलन भी शुरू हो गया। इस आंदोलन में भी राधा दीदी खूब सक्रिय रहीं और उनको इस सक्रियता की वजह से आश्रम को भी एक नई पहचान मिली।

राधा दीदी को किसी भी पहल के लिए अनुमति देने के पहले सरला बहन बहुत कठोरता से जांचती तभी इजाजत देती। उन्होंने राधा दीदी को बुनियादी शिक्षा के लिए अकेले सेवाग्राम जाने की अनुमति दे दी। इसके बाद 1965 में पहली बार राधा भट्ट को विदेश यात्रा के लिए डेनमार्क जाने का निमंत्रण आया। स्कूल जीवन में अंग्रेजी को अपने कस्बे में लाने का प्रयास करने वाली राधा दीदी ने आश्रम आते ही सरला बहन के कहने पर अंग्रेजी छोड़ दी थी। लेकिन जब उनको डेनमार्क जाना था तो उन्होंने आश्रम में ही अंग्रेजी सीखनी शुरू की। इसमें उनके एक विदेशी मित्र ने मदद की।

डेनमार्क में किया डिप्लोमा

राधा दीदी ने पहली बार 1965 में विदेश की यात्रा की। इस दौरान उन्होंने डेनमार्क में प्रौढ़ शिक्षा का डिप्लोमा लिया और स्कैंडिनेवियन देशों डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड में फोक हाईस्कूलों का अध्ययन किया। यह विदेश यात्रा राधा दीदी के लिए कई तरह के नए अनुभवों के रूप में सामने आई।

Radha Bahan को मिली जिम्मेदारियां

विदेश यात्रा से लौटने के बाद स्थितियां तेजी से बदलीं। राधा बहन लक्ष्मी आश्रम की मंत्रर और संचालिका बनाई गई। उनके संचालन के दौरान लक्ष्मी आश्रम के भले ही कुछ नियम-कायदे में संशोधन किया गया लेकिन आश्रम की मूल आत्मा को यथावत रखा गया। उनके दौर में पर्वतीय बालिकाओं और युवतियों को बेहतर शिक्षण-प्रशिक्षण का मौका मिला। साथ ही आश्रम में कई नई गतिविधियों की शुरूआत भी हुई। खादी ग्रामोद्योग और पर्यावरण के क्षेत्र में कई कार्यक्रम शुरू हुए। वर्षों से शांति से शिक्षा देने वाला आश्रम का आंदोलनों-अभियानों के रूपों में भी सामने आया।

इसी दौर में उतराखंड में शराबबंदी आंदोलन शुरू हुआ जिसमें राधा दीदी के नेतृत्व में आश्रम की युवतियों ने सक्रिय भूमिका निभाई। खुद राधा दीदी इस आंदोलन के दौरान दो बार जेल भी गईं। सरकार को उन्हें जेल भेजने की मजबूरी इसलिए आई कि राधा दीदी के नेतृत्व में महिलाओं का संगठन सशक्त और सक्रिय हुआ। इस आंदोलन का उत्तराखंड की महिलाओं पर ये असर हुआ कि वे अपने गांव-कस्बे के हक के लिए आज भी कहीं से भी आंदोलन छेड़ देती हैं। आश्रम अपने नए-नए परिवर्तनों के साथ आगे बढ़ ही रहा था कि उत्तराखंड में चिपको आंदोलन भी शुरू हो गया। इस आंदोलन में भी राधा दीदी खूब सक्रिय रहीं और उनको इस सक्रियता की वजह से आश्रम को भी एक नई पहचान मिली और यहां पढ़ने वाली लड़कियों को भी नए-नए अनुभवों-प्रयोगों से गुजरने का मौका मिला।

उत्तराखंड और देश के दूसरे हिस्सों में राधा दीदी के चलाए हुए कार्यक्रम और आंदोलन आज भी हजारों-लाखों लोगों के लिए एक उदाहरण की तरह है। राधा दीदी का महिला व्यवसाय के विकास के क्षेत्र में किया गया योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने हस्तकलाओं द्वारा अपनी आजीविका प्राप्त करने वाली महिलाओं के लिए सुविधाएं संसाधन और उत्पादन के लिए बाजार प्राप्त हो- इसके मद्देनजर सरकारी नीतियां बदलने के लिए अभियान चलाया और महिला-हाट नाम की एक संस्था का गठन किया। इस संस्था से कुमाऊँ-गढ़वाल की कारीगर महिलाओं को निरंतर प्रत्यक्ष काम का मौका मिल रहा है।

इन्दौर में कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट की राष्ट्रीय सचिव के रूप में काम करने का राधा दीदी को मौका मिला तो उन्होंने अपनी कार्यक्षमता और सुझबुझ से यहां के कार्यक्रमों को अपने आठ साल के कार्यकाल में और विस्तार दिया। देशभर की दर्जनों महत्वपूर्ण संस्थाओं में राधा दीदी ऊँचे पदों पर सम्मान के साथ बिठाई गई हैं। गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष रही हैं। हिमालय सेवा संघ, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट इंदौर, हिमवंती (नेपाल), केन्द्रीय गांधी स्मारक निधि, नई दिल्ली जैसी संस्थाओं में उनकी सक्रियता बनी हुई है।

सन्दर्भ : मेरा पहाड़

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