Ganga Dussehra 2025: भारत की सांस्कृतिक परंपराएं जितनी गूढ़ और प्राचीन हैं, उतनी ही पर्यावरण के प्रति संवेदनशील और लोक जीवन से गहराई से जुड़ी हुई भी हैं। इन्हीं परंपराओं में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है-गंगा दशहरा, जो हर वर्ष ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। यह पर्व न केवल गंगा जी के धरती पर अवतरण का स्मरण है, बल्कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों, विशेषकर नदियों और जल स्रोतों की महत्ता को समझने और उन्हें सम्मान देने का अवसर भी है।
गंगा अवतरण: प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक
पौराणिक आख्यानों के अनुसार, राजा भगीरथ के कठिन तप से प्रसन्न होकर गंगा जी जब धरती पर आने को तैयार हुईं, तब एक समस्या उत्पन्न हुई-उनके वेग को धरती कैसे संभालेगी? समाधान शिव जी ने सुझाया और गंगा को अपनी जटाओं में समाहित कर उनका वेग नियंत्रित किया। जब गंगा का प्रवाह धरती पर छोड़ा गया, तो वह एक नियंत्रित और जीवनदायिनी धारा बनकर प्रवाहित हुई।
यदि हम इस कथा को पर्यावरणीय दृष्टिकोण से देखें, तो शिव की जटाएं वास्तव में हिमालय पर्वत श्रृंखलाएं हैं, जो अनेक नदियों के स्रोत हैं। गंगा की विभिन्न धाराएं-रामगंगा, कालीगंगा, सरयू गंगा, गोमती गंगा, धौली गंगा, खीर गंगा आदि-इन पर्वतीय जलागम क्षेत्रों से ही निकलती हैं और हमारे खेती-बाड़ी, समाज, संस्कृति और पर्यावरण का आधार बनती हैं। इस कथा के माध्यम से यह गहरा संदेश मिलता है कि जल स्रोतों का संतुलन बनाए रखना आवश्यक है और जल का सही उपयोग ही जीवन का आधार है।
उत्तराखण्ड में गंगा दशहरा की सांस्कृतिक छटा
उत्तराखण्ड, विशेषकर कुमाऊं अंचल, में गंगा दशहरा पर्व एक लोकपर्व के रूप में बड़े उल्लास और श्रद्धा से मनाया जाता है। गांवों और कस्बों में इस दिन घरों और मंदिरों के द्वारों पर रंग-बिरंगे “दशहरा द्वार पत्र“ लगाए जाते हैं। इन्हें स्थानीय पुरोहित हाथों से बनाते हैं और विशेष सुरक्षा मंत्रों के साथ जजमानों को प्रदान करते हैं। यह द्वार पत्र न केवल सजावटी होते हैं, बल्कि लोक मान्यता के अनुसार ये प्राकृतिक आपदाओं, अग्निकांड, चोरी और वज्रपात से रक्षा करते हैं।
गंगा दशहरा द्वार पत्र पर सुरक्षा श्लोक/मंत्र-
अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च वैशम्पायन एव च
सुमन्तुजैमिनिश्चैव पञ्चते वज्रवारकाः
मुनेः कल्याणमित्रस्य जैमिनेश्चापि कीर्तनात्
विद्युदग्निभयं नास्ति लिखितं गृहमण्डले
यत्राहिशायी भगवान् यत्रास्ते हरिरीश्वरः
भङ्गो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा
पूर्व काल में इन द्वार पत्रों को बनाने के लिए प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता था-दाड़िम, किलमोड, अखरोट, बुरांश जैसे पौधों के रंगों से यह लोककला सजाई जाती थी। हालांकि आजकल बाजार से छपे हुए पत्रों का चलन अधिक हो गया है, फिर भी इस परंपरा की मूल भावना और मंत्रात्मक शक्ति आज भी जीवित है।
जलधाराओं के प्रति सम्मान: भारतीय दर्शन की आत्मा
उत्तराखण्ड के लोक समाज में हर छोटी-बड़ी नदी को गंगा का ही प्रतिरूप माना गया है। चाहे वह सरयू हो, गोमती हो या अलकनंदा-सभी को पवित्र जलधारा माना जाता है। इस दिन लोग इन नदियों के संगम स्थलों-बागेश्वर, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार-में जाकर पवित्र स्नान करते हैं। इस स्नान के पीछे केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि प्राकृतिक जल स्रोतों को शुद्ध और पवित्र बनाए रखने की लोक भावना भी छिपी है।
गंगा-अमृत शरबत: स्वास्थ्य और प्रकृति का उपहार
गंगा दशहरा पर्व के दिन एक और महत्वपूर्ण परंपरा है-चीनी, सौंफ और कालीमिर्च से बना शरबत पीने की। पहाड़ी लोक में इसे गंगा-अमृत की तरह माना जाता है और विश्वास किया जाता है कि इसके सेवन से व्यक्ति वर्ष भर निरोग रहता है। यह परंपरा बताती है कि हमारे लोकाचारों में स्वस्थ जीवन और प्राकृतिक औषधीय तत्वों का ज्ञान गहराई से अंतर्निहित है।
निष्कर्ष
गंगा दशहरा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि प्राकृतिक चेतना, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक समरसता का पर्व है। यह पर्व हमें सिखाता है कि जल केवल जीवन नहीं, संस्कृति और आस्था का भी केंद्र है। गंगा केवल एक नदी नहीं, बल्कि भारतीय जीवन की धारा है। जब हम गंगा और उसकी सहायक नदियों को स्वच्छ और सुरक्षित रखने की बात करते हैं, तो हम केवल पर्यावरण संरक्षण नहीं, बल्कि सांस्कृतिक उत्तराधिकार की रक्षा भी कर रहे होते हैं।
आइए इस गंगा दशहरा पर हम संकल्प लें कि जलधाराओं को केवल पूजें नहीं, संरक्षित भी करें, क्योंकि यही हमारे भविष्य की जीवनधारा है।
Ganga Dussehra 2025 Date : इस वर्ष गंगा दशहरा ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि यानि 05 जून 2025 को मनाया जायेगा। इस अवसर पर लोग विभिन्न गंगा घाटों पर स्थान करेंगे। वहीं इस अवसर पर उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल में लोग सुऱक्षा मंत्र से पूरित श्री गंगा दशहरा द्वार पत्र अपने घरों के चौखट पर चिपकायेंगे।