निरैवैलि जैंता की लोक कथा | Folk Story of Uttarakhand

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निरैवैलि जैंता की लोक कथा
Folk Story of Uttarakhand Naraiwali Jainta

Folk Story of Uttarakhand लोक गाथा श्रुति के रूप में संचारित एक अलिखित दस्तावेज होता है, जो काल्पनिक भी हो सकता है अथवा ऐतिहासिक या अर्ध-ऐतिहासिक भी। कुमायूं तथा गढ़वाल में भी कई लोक गाथाएं अज्ञात काल से चली आ रहीं हैं। इस प्रकार की गाथाओं में कभी कभी अतिशयोक्तिपूर्ण आख्यान भी होते हैं, जो तर्क की कसौटी में खरे नहीं उतरते, या ऐतिहासिक घटनाक्रम से मेल नहीं खाते, परन्तु फिर भी इनकी नींव लोक जीवन के सहज विश्वास पर खड़ी होती है, इसलिए यह अपने अन्दर सदियों तक जीवित रहने की क्षमता और संकल्प समेटे रखती हैं।

चूँकि लोक गाथाएं केवल मौखिक संचरण के माध्यम से आगे चलती हैं, समय बीतने के साथ ही इनके स्वरुप व कथानक में पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ परिवर्तन भी होते ही रहते है, जैसा कि राम कथा के साथ हुआ। यूँ तो महिलाओं का जीवन-विशेष रूप से पर्वत प्रांतर में हमेशा से ही कष्टपूर्ण रहा है, परन्तु लोकगाथाओं में इसे और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा कर दर्शाने की परंपरा सी ही रही है।

निरैवैलि जैंता की लोकगाथा

उलांसारि नाम का एक गरीब किसान था। वह खेती बाड़ी से अपनी रोजी चलाता था। उसके घर एक पुत्री पैदा हुई, जिसका नाम निरैवैलि जैंता रखा गया। वह बचपन से ही बहुत मेहनतकश थी तथा घर के सारे कामों में पूरी तन्मयता से अपने माँ-बाप का हाथ बटाती थी। बड़ी होने पर उसका विवाह पड़ोस के ही एक गांव मिलौली के युवक भेल्सियूँ से कर दिया गया। परन्तु उसके साथ धोखा हो गया। भेल्सियूँ बहुत ही अधिक मंद बुद्धि का निकला, जिसे दीन-दुनियां की कोई खबर ही नहीं थी। इतना ही नहीं, उसकी सास भी बहुत ही निर्दय स्वभाव की महिला थी, जो निरंतर ही उस पर नाना प्रकार के अत्याचार ढाती थी। वह उसे खाना भी भरपेट नहीं देती थी, पर काम के मामले में उसे हमेशा ही कोल्हू के बैल की तरह हर समय ही जोते रखती थी।

वह जब घास-लकड़ी के लिए जंगल जाती तो साथ की सभी महिलाएं अच्छा चवेना ले जातीं थी, पर जैंता को केवल भांगिरे का प्युन (भंगीरे की सूखी खली) ही मिलती। इतना भर ही होता, तो चल भी जाता, पर उसका दुर्भाग्य तो कहीं दूर तक ही उसके साथ-साथ ही चल रहा था। वह उसे कई सूपे धान के कूटने के लिए देती, पर मूसल छुपा देती। वह किसी तरह लकड़ी के खूंटे से ही धान की कुटाई कर लेती। घास काटना तो आवश्यक था, पर इसके लिए दराती व रस्सी ले जाने की अनुमति उसे नहीं थी। वह किसी तरह हाथ से ही घास की पत्तियां बीन लेती और बिरलुवा की बेल (यह एक मीठा व रसीला जंगली कंद होता है) की रस्सी बनाकर उसके गट्ठर बना लेती। जब उसे लकड़ी के लिए जंगल भेजा जाता तो उसे लकड़ी काटने के लिए दतुलिया (बड़ी दराती) ले जाने की अनुमति भी नहीं थी।

वह लकड़ी काटने के लिए केवल पत्थर का ही इस्तेमाल कर सकती थी। एक दिन वह एक पत्थर के टुकड़े से लकड़ी काटने का भरसक प्रयास कर रही थी तो उससे किसी भी तरह से लकड़ी कट ही नहीं पा रही थी। उस समय संयोग से वन देवता के रूप में सैम देवता उस वन प्रांतर में विचरण कर रहे थे। इस पर सैम देवता को उस पर बहुत दया आ गई। वह उस पत्थर के टुकड़े पर ही अवतरित हो गए। इसकी बजह से न केवल लकड़ी ही कट गई, बल्कि स्वतः ही उसका गट्ठर भी बन गया। उसके बाद तो सैमदेव जी उसके हर काम में उसकी मदद करने लगे। उन्होंने उसके मंद बुद्धि के पति को भी तीव्र बुद्धि प्रदान कर दी। उनकी ही असीम अनुकम्पा व चमत्कारिक शक्ति के कारण उसकी निर्दयी सास का जैंता के प्रति व्यवहार भी बदल कर एक दम से आत्मीय हो गया। उसके लिए इसके बाद का जीवन पूर्ण रूप से न केवल सुखमय ही हो गया, बल्कि सदियों तक निरैवैलि जैंता की गाथा के रूप में वह अमर भी हो गई।

यह थी निरैवैलि जैंता की मध्यकालीन उत्तराखंड की लोक कथा। आपको यह कथा कैसी लगी, पोस्ट में कमेंट कर अवश्य बताएं।

साभार – श्री उदय टम्टा

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