लोकगाथाओं का जनक और संस्कृति का संरक्षक-हुड़किया समुदाय।

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उत्तराखण्ड की पर्वत श्रृंखलाओं में निवास करने वाला हुड़किया समुदाय अब दृष्टि पटल से ओझल ही हो चुका है, परन्तु लोक गाथाओं (Folklore) के जनक होने के अलावा वाद्य व नृत्य कला को जीवित रखने में इस समुदाय का बहुत बड़ा हाथ रहा है। कुमाऊँ की प्रसिद्ध लोक गाथाओं-राजुला-मालूशाही, विरसाल गाथा, झंकुली पठान, निरैवली जैत़ा की कारुणिक गाथा सहित अनगिनत गाथाओं के रचनाकार यही लोग रहे हैं। इन्हें कत्यूरी शासन के समय से लेकर चंद शासन के समय तक लोक कलाओं के विकास व संरक्षण के लिए निरंतर प्रोत्साहन मिलता रहा और इन कलाओं को जीवित रखने में इन्होने कोई कसार नहीं छोड़ी। किसी का जीवन वृत्त काव्य रूप के साथ साथ गेय शैली में रचने की कला इनमें वंशानुगत रूप से पीढ़ी-दर पीढ़ी चलती रही थी, परन्तु राजशाही के समाप्त होते ही न केवल इस समुदाय पर बल्कि लोक कलाओं को भी भीषण आघात को झेलना ही पड़ा। कैसे रचते थे यह लोग लोक गाथाएं, पढ़िए यहाँ –

विरसाल गाथा

सीराकोट नाम के स्थान पर विरसाल नाम का एक बड़ा भू स्वामी रहता था। अचानक एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। मर कर उसने कफुवा (कुक्कू) पक्षी के रूप में जन्म ले लिया। पक्षी योनि में जन्म लेने पर भी उसे अपने पिछले जन्म की घटनाएं याद रहीं। एक बार अपनी पिछले जन्म की धरती को देखने के लिए कफुवा के रूप में वह शिनिकोट पहुँच गया। वहां पर उसका भाई घोघसाल रहता था। फागुन का महीना चल रहा था। घोघसाल अपने तिपुरे महल में बैठा कारिंदों से खेत की जुताई करा रहा था। वीरसाल प्रेमवश जुते बैल के जूड़े में बैठ कर कफ्फू-कफ्फू का राग अलापने लगा। हलवाहे ने जुताई में व्यवधान समझ कर अपने चाबुक की पिछली तरफ से उसे चोट मार दी। वह तड़पता हुआ जमीन पर गिर पड़ा और मुंह से आर्त स्वर में अपने भाई घोघसाल को ‘घोघिया-घोघिया’ के बोलों से पुकारने लगा। उसका भाई घोघसाल, जो अपने तिपुरे महल के छज्जे में खड़ा था, उसके मुंह से निकले संकट ग्रस्त बोलों सुनकर तुरंत उसके पास पहुंचा। घोघसाल ने उसे सहलाया और उसे तुरंत हुड़किया के पास ले गया और उससे तुरंत उसके जीवन वृत्त पर आधारित गाथा रचने की याचना कर डाली। अपनी पारंपरिक कला के द्वारा हुड़किया ने तुरंत ही विरसाल गाथा की रचना कर डाली, जो सैकड़ों साल से अभी तक कुमाऊँ में प्रचलित है।

राजुला-मालूशाही गाथा

यह गाथा बहुत लम्बी है। इसके अनुसार भोट के सुनपति शौका की पुत्री और अप्रतिम सौंन्दर्य की धनी राजुला को आभासी तौर पर विराट क्षेत्र के निवासी मालूशाही का ख्याल आ गया। वह अकेली ही दुर्गम पर्वतीय मार्ग से होकर बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में पहुँच गई। उसे वहाँ पर मालूशाही नहीं मिलन पाया। उधर मालूशाही को भी आभास के तौर पर राजूला दिखाई दी। वह उसकी तलाश में भोट क्षेत्र पहुँच गया। काफी ना-नुकुर के बाद राजुला और मालूशाही का अंतर्जातीय विवाह हो ही गया। इस गाथा को हुड्कियों ने बहुत ही मार्मिक ढंग से रचा और अब इसका नाट्यरूप भी आ गया है। हुड्कियों ने इस गाथा में कई लोकरंग भी भरे हैं। इन दोनों के विवाह के लिए पयां (पदम्)की टहनियों का स्टेज बनाया गया था। इस विवाह से आम जनता में ख़ुशी का संचार बढ़ गया था।

निरैवैलि जैंता की गाथा

हुड्कियों के द्वारा ही अलिसार गांव कि जैता की कथा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया गया है। उसका विवाह एक अक्षम व्यक्ति के साथ कर दिया गया था। वहाँ पर उसकी सास बड़ी ही क्रूर निकली। वह उसे खाने के लिए रूखी सुखी रोटी ही देती थी। उसे घास-लकड़ी के लिए जंगल भेजा जाता था, परन्तु घास-लकड़ी काटने के लिए उसे दराती और रस्सी ले जाने की इजाजत नहीं थी। वह किसी तरह हाथ से ही चुन-बीन कर घास व लकड़ी लाती। एक बार वह पत्थर से ही एक कठोर लकड़ी को तोड़ने का प्रयास कर रही थी, परन्तु लकड़ी टूटती ही नहीं थी। संयोग से उस समय उस वन प्रांतर में सैम देवता विचरण कर रहे थे। उन्हें उस निरीह जैत़ा पर दया आ गई। वह उस पत्थर में ही विराजमान हो गये। लकड़ी भी टूटी, बिरलुवा के बेल की रस्सी से उसका गट्ठर भी बंध गया। यही नहीं सैम देवता की अनुकम्पा से उसका लुंज-पुंज पति भी ठीक हो गया और साथ ही उसकी निर्दय सास का व्यवहार भी एकदम मृदु हो गया।

लेख : श्री उदय टम्टा
(से नि वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी)

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