हुड़किया बौल-उत्तराखंड की लोक विरासत।

On: Monday, June 16, 2025 6:49 PM
हुड़किया बौल

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में जीवन जितना कठिन है, उसकी सांस्कृतिक विरासत उतनी ही समृद्ध और प्रेरणादायक। यहाँ के पर्व, मेले, लोकनृत्य और लोकगीत न केवल पहाड़वासियों के मनोरंजन के माध्यम हैं, बल्कि सामूहिक श्रम, सामाजिक सहयोग और जीवन की जटिलताओं को सरल बनाने के लिए भी प्रयोग में लाए जाते हैं। इन्हीं में एक लोक गायन की परंपरा है – हुड़किया बौल। जो विशेष रूप से कुमाऊँ अंचल में कृषि से जुड़ी एक अनूठी परंपरा है।

हुड़किया बौल क्या है ?

हुड़किया बौल एक पारंपरिक लोकगायन शैली है, जो विशेष रूप से कुमाऊं क्षेत्र में खेतों में काम करते समय, विशेषकर धान की रोपाई और मंडुवा गुड़ाई के दौरान गाई जाती है। इसका उद्देश्य खेतों में काम कर रहे महिला-पुरुषों को प्रोत्साहन देना, उनकी थकान को दूर करना और खेतों में एक सामूहिक लयबद्धता पैदा करना होता है। साथ ही फसल की अच्छी पैदावार की उम्मीद की जाती है।

बौल” शब्द का अर्थ है – परिश्रम। और “हुड़किया” वह व्यक्ति होता है जो हाथ में हुड़का लेकर, लोकगाथाओं को गाते हुए खेत में काम करने वालों को प्रेरित करता है। इस प्रकार ‘हुड़किया बौल’ शब्द का अर्थ हुआ- हुड़के की थाप पर श्रम से जुड़ी लोकगाथा गायन परंपरा

कब लगता है हुड़किया बौल

पहाड़ों में आषाढ़ का महीना प्रारम्भ होते ही धान की रोपाई प्रारम्भ हो जाती है। इस दौरान हलिया और बैलों की जोड़ी पानी लगाने वाले कुल बोसियों की सहायता से पूरे खेत को रोपाई के लिए तैयार किया जाता है।  फिर बारी आती है महिलाओं की जिन्हें पूरे खेत में धान के पौधों को रोपना होता है। यह कार्य बेहद थका देने वाला होता है और इसी काम को थोड़ा हल्का और तेजी से करने के लिए हुड़किया बौल का आयोजन किया जाता है।

वहीं कुमाऊँ में मंडुवे, झुंगर की गुड़ाई के समय भी हुड़किया बोल का आयोजन होता है। जिसे ‘गुड़ौल’ भी कहते हैं। इसमें भी हुड़क्या हुड़के के साथ लोकगाथायें गेय रूप में सुनाता है, जिसे महिलाएं दोहराते हुए अपने गुड़ाई के काम में तेजी लाते हैं।

हुड़किया बोल के गीत

हुड़क्या सिर पर सफ़ेद रंग की नई पगड़ी अथवा सफ़ेद टोपी पहने, जो खेत के स्वामी द्वारा भेंट की जाती है, कुर्ता और पजामा पहनकर हाथों में रंग-बिरंगे रिब्बनों से सजे हुड़का लेकर जब रोपाई के खेत पर पहुँचता है तो उसकी शुरुआत सर्वप्रथम भूमि के देवता-भुम्याल, पानी के देवता-इन्द्र, और छाया के लिए मेघ स्तुति से होती है। उसके बाद अच्छी फसल के ग्राम के सभी देवी-देवताओं के कामना की जाती है। फिर होती है हुड़किया बौल गाने की शुरुआत। जिस व्यक्ति के खेत में रोपाई लग रही है उन्हें सम्बोधित करते हुए हुड़किया कहता है -आज फलां व्यक्ति के खेत में बौल होगा, जहाँ में बारी-बारी से इन गाथाओं को गाऊंगा और फिर हुड़के की थाप के साथ हुड़किया बोल की शुरुआत हो जाती है।

हुड़के के थाप से तन-मन में नई ऊर्जा का संचार

हुड़की बोल (Hudki Bol) में बजाया जाने वाला वाद्य हुड़का होता है। जो हुड़किया बौल की आत्मा है। यह एक पारंपरिक लोकवाद्य यंत्र है, जिसकी नाली यानी बाहर का ढांचा एक विशेष प्रकार की लकड़ी का बना होता है और उसके पुड़े बकरी के आमाशय की पतली झिल्ली के बनाये जाते हैं, लेकिन बदलते दौर में ये पूड़े पॉलीथीन के भी बनने लगे हैं को पतली डोरियों के माध्यम से कसा जाता है। हुड़का आकार में छोटा तो है लेकिन इससे निकलने वाली आवाज (धुन) में अत्यंत प्रभावशाली होती है। यह वाद्य जब खेतों की हरियाली में गूंजता है, तो श्रमिकों के मन और शरीर दोनों में नई ऊर्जा का संचार होता है।

हुड़का कंधे पर डोरी से टांगकर हाथ में पकड़कर बजाया जाता है। हुड़के की थाप न केवल श्रम को सहज बनाती है, बल्कि खेतों में एक लयबद्धता और समरसता का माहौल तैयार करती है।

महिलाओं की भूमिका और खेतों का उत्सव

धान की रोपाई के दौरान जब महिलाएं खेतों में कतारबद्ध होकर पौध रोपती हैं, तब खेत केवल उत्पादन के स्रोत नहीं रह जाते-वे सांस्कृतिक उत्सव स्थल बन जाते हैं। हुड़किया सुफल है जाया भूमि का भुम्याल, पंचनाम देवा हो की पंक्तियों के साथ विभिन्न देवी-देवताओं की स्तुति के साथ हुड़की बौल की शुरुआत करता है। उसके बाद लोकगाथाएं, पुरातन प्रेम कथाएं या वीरगाथाएं गाता है, और खेत में काम कर रही महिलाएं इन पंक्तियों को दोहराते हुए अपने हाथों से लय वार तेजी से काम करती हैं। परिणामस्वरूप  न थकान, न ऊब, बल्कि एक प्रकार की आध्यात्मिक एकाग्रता और जोश का माहौल तैयार हो जाता है।

मनोवैज्ञानिक ऊर्जा और परंपरा की जीवंतता

यह परंपरा केवल गीत या संगीत नहीं अपितु यह एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग भी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, जब श्रम में संगीत जुड़ जाता है, तो मस्तिष्क में डोपामिन और एंडोर्फिन जैसे रसायन उत्पन्न होते हैं, जो थकान को कम करते हैं और ऊर्जा बनाए रखते हैं। हुड़किया बौल में यही होता है- श्रमिक बिना रुके, बिना ऊबे, घंटों तक एकाग्र होकर काम कर पाते हैं।

लोक गाथाओं का जीवंत दस्तावेज

हुड़किया बोल केवल श्रम के गीत नहीं हैं, ये हमारी लोक परंपराओं और इतिहास का जीवंत दस्तावेज भी हैं। इनमें राजुला-मालूशाही, चंद राजाओं के युद्ध, देवताओं की गाथाएं और नारी संघर्ष जैसे अनेक प्रसंगों को समाहित किया जाता है। ये गाथाएं पीढ़ियों से लोक मानस में स्थान बनाकर आज तक गाई जाती हैं।इस तरह ये गीत न केवल श्रम के साथी हैं, बल्कि इतिहास और संस्कृति के संवाहक भी हैं, जो मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।

आधुनिकता की चुनौतियाँ

आज जबकि आधुनिक मशीनें, ट्रैक्टर और रासायनिक खेती ने पारंपरिक खेती की पद्धतियों को पीछे धकेल दिया है, हुड़किया बौल जैसी परंपराएं भी लुप्त होने के कगार पर हैं। लेकिन कुछ लोक कलाकार, शिक्षक और संस्कृति प्रेमी संस्थाएं इस परंपरा को जीवित रखने के लिए प्रयासरत हैं। उत्तराखंड के कई सांस्कृतिक आयोजनों में आज भी हुड़किया बौल को मंच मिल रहा है।

भविष्य की ओर बढ़ता अतीत

उत्तराखंड का जनमानस कठिन परिस्थितियों के बावजूद हमेशा आशा, संस्कृति और श्रम के सहारे आगे बढ़ता आया है। आपदाएं, पलायन और बदलते समय के बावजूद भी हुड़किया बौल की थाप और गूंज अब भी पर्वतों की घाटियों में सुनाई देती है। यह न केवल सांस्कृतिक उत्तराधिकार है, बल्कि सामूहिक श्रम, जीवनशैली और संघर्ष की एक जीवंत मिसाल भी है।

निष्कर्ष

हुड़किया बौल कोई बीता हुआ अध्याय नहीं, बल्कि हमारी जड़ों से जुड़ा आज भी जीवंत संगीत है। इसे सहेजना, प्रचारित करना और नई पीढ़ी को इससे जोड़ना हमारी साझा जिम्मेदारी है। जब तक खेतों में हरियाली है, जब तक श्रम में लय है, तब तक हुड़किया बौल की थाप हमारे जीवन में गूंजती रहेगी।

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