Hat Kalika Mandir: उत्तराखंड में ‘हाट कालिका’ के नाम से विख्यात पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट स्थित माता महाकाली को कुमाऊं रेजीमेंट अपनी आराध्य देवी के रूप में पूजती है। जंग के मैदान में कुमाऊं के लड़ाकों को ताकत और साहस देने वाली हाटकालिका माता न सिर्फ उत्तराखंड बल्कि देश दुनिया के श्रद्धालुओं की भी पूजनीय हैं। धार्मिक आस्था और परंपराओं को समेटे मां हाट कालिका का वर्णन कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर में भी मिलता है। वैसे तो पूरे साल श्रद्धालु यहां आते हैं लेकिन नवरात्र में यहां पूजन का विशेष महत्व है। दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र गंगोलीहाट में आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित मां महाकाली के मंदिर में नवरात्रि भर देश के तमाम हिस्सों से भक्तजन पूजा के लिए पहुंचते हैं।
भारत की प्रतिष्ठित थल सेना कुमाऊँ रेजीमेंट हाट कालिका माता को अपनी आराध्य देवी के रूप में पूजती है और उसका युद्धघोष भी ‘कालिका माता की जय‘ है। द्वितीय विश्वयुद्ध से लेकर वर्ष 1962, 1971 में हुये युद्धों में कुमाऊँ रेजीमेंट के वीरों ने अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया है। माता कालिका ने इन वीरों को साहस और शौर्य प्रदान किया और संकट से उबारा है। इसीलिये माता इन रणबांकुरों में विजयदायिनी रणचंडी के रूप में पूजित हैं।
कुमाऊं रेजीमेंट हाट कालिका पर न्योछावर क्यों
कुमाऊं रेजीमेंट की अगाध श्रद्धा के पीछे की कहानी भी दिलचस्प और मां की शक्ति की झलक दिखलाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बंगाल की खाड़ी में भारतीय सेना का एक जहाज डूबने लगा। तमाम कोशिशें भी जहाज में घुस रहे पानी को नहीं रोक पाई। सैन्य अधिकारियों ने बीच समुद्र में जहाज का डूबना निश्चित मानते हुए सैनिकों से अपने-अपने ईष्टों का स्मरण करने को कहा। तमाम तरह से देवी, देवताओं के जयकारे लगने लगे। ज्योंहि कुमाऊं के सैनिकों ने हाट कालिका के जयकारे लगाए तो जहाज आश्चर्य ढंग से किनारे लग गया। तब से कुमाऊं रेजीमेंट मां पर न्योछावर है। मंदिर में अधिकांश निर्माण रेजीमेंट ने ही किए हैं। कहा जाए कि रेजीमेंट का हाट कालिका से अटूट नाता है तो गलत नहीं होगा।
हाट कालिका मंदिर में देवी महाकाली की पहली मूर्ति कुमाऊँ रेजिमेंट के द्वारा स्थापित की गई है। जो पाकिस्तान से वर्ष 1971 में हुए युद्ध के बाद गंगोलीहाट के कनारागांव निवासी सूबेदार शेर सिंह के नेतृत्व में आयी रेजिमेंट की टुकड़ी ने किया है। उसके बाद यहाँ मंदिर का प्रवेश द्वार, विभिन्न धर्मशालाओं का निर्माण कुमाऊँ रेजीमेंट द्वारा करवाया गया है। संकटग्रस्त जवानों को नया जीवन देने वाली महाकाली को उनके द्वारा चांदी के छत्र और सिंहासन चढ़ाये गए हैं। जवानों की देवी पर आस्था का प्रमाण यही है यहाँ हर साल सैकड़ों वीर जवान पूजा और दर्शन के लिए पहुँचते हैं।
हाटकालिका शक्तिपीठ की स्थापना के पीछे रोचक कहानी
मान्यता है कि आठवीं सदी में गंगोलीहाट क्षेत्र में रासक्षों का आतंक था। रासक्षों के विनाश के लिए मां भगवती ने महाकाली के रूप में अवतार लिया। एक-एक कर सभी रासक्षों का विनाश कर दिया। राक्षसों के विनाश के बाद भी मां काली का रौद्र रूप शांत नहीं हुआ। लोग अकाल काल कवलित होने लगे। उसी दौर में आदि गुरु शंकराचार्य जी महाराज जागेश्वर धाम की यात्रा पर आए हुए थे। उन्होंने गंगोलीहाट में देवी के प्रकोप की बात सुनी तो वह गंगोलीहाट चले आए। वह इसे देवी का प्रकोप मानने से इंकार करते रहे। वर्तमान काली मंदिर से सौ मीटर की दूरी पर पहुंचे थे कि जड़वत हो गए। इस स्थान पर शिला के रूप में गणेश जी स्थापित हैं।
शंकराचार्य जी को मां की शक्ति का ज्ञान हो गया। कहा जाता है कि आदिगुरु उस स्थल से मंदिर के गर्भग्रह तक दंडवत प्रणाम करते हुए पहुंचे। अपने तपबल और मंत्र शक्ति से महाकाली के रौद्र रूप को शांत कर कीलित कर दिया। कहा जाता है कि गंगोलीहाट के हाट कालिका मंदिर में शंकराचार्य जी के पदार्पण से पहले नरबलि होती थी। उसके पश्चात नर बलि पर रोक लगी। मां के दरबार को वरदानी माना जाता है। राजा हो या रंक इस दरबार का आशीर्वाद हर कोई हासिल करना चाहता है।
मंदिर निर्माण के लिए भी मां ने कराया शक्ति का आभास
हाट कालिका के वर्तमान मंदिर के निर्माण में भी महाकाली ने अपनी शक्ति का आभास कराया था। 19वीं सदी के प्रारंभ में हाट कालिका के तत्कालीन पुरोहित पं. रुद्र दत्त पंत प्रयागराज कुंभ स्नान के लिए गए हुए थे। वह जिस ठिकाने पर रुके थे, वहीं पर श्री लक्ष्मण जंगम नाम के एक साधु भी टिके हुए थे। जंगम बाबा ने पुरोहित पंत से परिचय प्राप्त करने के बाद बताया कि मां ने उनके साथ उत्तराखंड जाने का आदेश दिया है। जंगम रुद्र दत्त पंत के साथ महाकाली मंदिर पहुंच गए। उन्हें मंदिर के जीर्णोद्घार के लिए आसपास कहीं भी पत्थर नहीं मिला। बाबा परेशान हो उठे। बताया जाता है कि रात में महाकाली स्वप्न में जंगम बाबा को एक स्थान पर ले गई। सुबह होने पर उस स्थान पर खुदाई की गई तो हरे रंग के पत्थरों की प्लेट निकलने लगी। मंदिर निर्माण का काम पूरा होते ही पत्थर की खदान भी बंद हो गई।
हाट कालिका में नर बलि का भी रहा है विधान
सदियों से प्रचलित कहावत के अनुसार शंकराचार्य के पदार्पण से पहले हाट कालिका के मंदिर में नर बलि होती थी। उसके बाद पशु बलि की प्रथा चली। इसके लिए बाकायदा एक गांव नियत था। इस गांव के लोगों को मौत उपजाति से जाना जाता था। आज भी इन लोगों का गांव सिमलकोट मां महाकाली के क्रीड़ांगन चौड़िक नामक मैदान के समीप स्थित है। अब यह लोग मेहता उपजाति से जाने जाते हैं। इनके कई परिवार पिथौरागढ़ और अन्यत्र स्थानों में बसे हैं। आज भी चैत्र और आश्विन की नवरात्रि की अष्टमी को मेहता उपजाति के लोग रात्रि में विधि-विधान के साथ पूजा करते हैं।
कैसे पहुंचें
गंगोलीहाट 29.48°N 80.05°E पर स्थित है। इसकी औसत ऊंचाई 1,760 मीटर (5,773 फीट) है। हाट कालिका मंदिर गंगोलीहाट बाजार से करीब 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जो सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। पिथौरागढ़ शहर से मंदिर की दूरी 76 किलोमीटर है। वहीं चौकोड़ी से लगभग 35 किलोमीटर और पाताल भुवनेश्वर से 13 किलोमीटर की दूरी पर है। गंगोलीहाट पहुंचने के लिए कई विकल्प हैं। निकटतम रेलवे स्टेशन काठगोदाम है, जहाँ से टैक्सियाँ और बसें उपलब्ध हैं। निकटतम हवाईअड्डा पंतनगर है, जहाँ से भी टैक्सियाँ उपलब्ध हैं। आप हल्द्वानी के रास्ते भी गंगोलीहाट पहुंच सकते हैं, जहाँ से निजी टैक्सियाँ और बसें उपलब्ध हैं।