फ्योंली की लोककथा | Folk Story of Uttarakhand | Fyoli Flower

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Folk Story of Uttarakhand
Folk Story of Uttarakhand Fyoli

Folk Story of Uttarakhand : बसंत ऋतु में पहाड़ी क्षेत्रों में घरों के आसपास, खेतों के मेड़ों पर एक सुन्दर पीला फूल खिल आता है। जिसे उत्तराखंड में ‘प्योंली’ या ‘फ्योंली’ के नाम से जानते हैं। इस पहाड़ी पुष्प का वानस्पतिक नाम Reinwardtia indica है। फ्योंली एक ऐसा फूल है जो पहाड़ की लोक संस्कृति में रचा बसा है। विभिन्न रचनाकारों ने फ्योंली को अपने गीतों और साहित्य में भरपूर सम्मान दिया है। उत्तराखंड में फ्योंली प्रेम और त्याग की सबसे सुन्दर प्रतीक मानी जाती है। जिस पर एक मार्मिक लोककथा प्रचलित है।

फ्योंली (Fyoli ) पर गढ़वाली लोकसाहित्य के शिखर पुरोधा डॉ. गोविन्द चातक की लोककथा इस प्रकार है –       

Folk Story of Fyoli in Hindi  

कहीं एक घना जंगल था। उस जंगल में एक ताल था और उस ताल के पास नारी-जैसी एक वन-कन्या रहती थी। उसका नाम था प्योंली। कोसों तक वहां आदमी का नाम न था। वह अकेली थी, बस उसके पास वन के जीव-जन्तु और पक्षी रहते थे। वे उसके भाई-बहन थे-बस प्यार से पाले-पोसे हुए। यही उसका कुटुम्ब था। वह उन सब की अपनी-जैसी थी। हिरनी उसके गीतों में अपने को भूल जाती थी। फूल उसे घेरकर हंसते थे, हरी-भरी दूब उसके पैरों के नीचे बिछ जाती और भोर के पंछी उसे जगाने को चहचहा उठते थे। वह उन सब की प्यारी थी।

वह बहुत खुश थी। सुन्दर भी थी। उसके चेहरे पर चांद उतर आया था। उसके गालों में गुलाब खिले थे। उसके बालों पर घटाएं घिरी थीं। ताल के पानी की तरह उसकी जवानी भरती जा रही थी। उस रूप को न किसी ने आंखों से देखा था, न हाथों से छुआ था।

उस धरती पर कभी आदमी की काली छाया न पड़ी थी। पाप के हाथों ने कभी फूलों की पवित्रता को मैला न किया था। इसीलिए जिन्दगी में कहीं लोभ न था, शोक न था। सब ओर शांति और पवित्रता थी। फ्योंली निडर होरक वनों में घूमती, कुंजों में पेड़ों के नये पत्ते बिछाकर लेटती, लेटकर पंछियों के सुर में अपना सुर मिलाती, फिर फूलों की माला बनाती और नदियों की कल-कल के साथ नाचने लगती। थी तो अकेली, पर उसकी जिन्दगी अकेली न थी।

एक दिन वह यों ही बैठी थी। पास ही झरझर करता एक पहाड़ी झरना बह रहा था वहां एक बड़े पत्थर का सहारा लिए वह जलमें पैर डाले एक हिरन के बच्चे को दुलार रही थी। आंखें पानी की उठती तरंगों पर लगी थीं, पर मन न जाने किस मनसूबे पर चांदनी-सा मुस्करा रहा था। तभी किसी के आने की आहट हुई। हिरन का बच्चा डर से चौंका। फ्योंली ने मुड़कर देखा तो एक राजकुमार खड़ा था। कमल के फल जैसा कोमल और हिमालय की बरफ जैसा गोरा। फ्योंली ने आज तक किसी आदमी को नहीं देखा था। उसे देखकर वह चांद-सी शरमा गई, फूल-सी कुम्हला गई। राजकुमार प्यासा था। मन उसका पानी में था, पर फ्योंली  को देखते ही वह पानी पीना भूल गया। फ्योंली अलग सरक गयी। राजकुमार ने अंजुलि बनायी और पानी पीने लगा। पानी पिया तो फ्योंली ने राजकुमार से पूछा, “शिकार करने आये हो ?”

राजकुमार ने कहा, “हां।”

फ्योंली बोली, “तो आप चले जाइये। यह मेरा आश्रम है। यहां सब जीव-जन्तु मेरे भाई-बहन हैं। यहां कोई किसी को नहीं मारता। सब एक-दूसरे को प्यार से गले लगाते हैं।”

राजकुमार हँसा  बोला, “मैं भी नहीं मारूंगा। यहां खेल-खेल में चला आया था। खैर, न शिकार मिला, न अब शिकार करने की इच्छा है। इतनी दूर भटक गया हूं कि…..”

इतना कहकर राजकुमार चुप हो गया। फिर कुछ समय के लिए कोई कोई किसी से नहीं बोला। फ्योंली ने आंखों की कोर से उसे फिर एक बार देखा। वह सोच न पाई कि आगे उससे क्या कहे, क्या पूछे, पर न जाने वह क्यों उसे अच्छा लगा।

यों ही उसके मुख से निकल पड़ा, “आप थके हैं। आराम कर लीजिये।”

राजकुमार एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। संध्या होने लगी थी। आसमान लाल हुआ। वन में लौटते हुए पश-पक्षियों का कोलाहल गूंज उठा। देखते-ही-देखते फ्योंली के सामने कंद-मूल और जंगली फलों का ढेर लग गया। यह रोज की ही बात थी। रोज ही तो वन के पशु-पक्षी-उसके वे भाई-बहन-उसके लिए फल-फूल लेकर आते थे। वह उन सबकी रानी जो थी।

राजकुमार ने यह देखा तो बाला, “वनदेवी, तुम धन्य हो! कितना सुख है यहां ! कितना अपनापन है ! काश, मैं यहां रह पाता !”

फ्योंली ने टोका, “बड़ों के मुंह से छोटी बातें शोभा नहीं देतीं। तुम यहां रहकर क्या करोगे ? राजकुमार को वनों से क्या लेना-देना। उन्हें तो अपने महल चाहिए, बड़े-बड़े शहर चाहिए, जहां उन्हें राज करना होता है।”

राजकुमार ने कहा, “जंगल में ही मंगल है, तुम भी तो राज ही कर रही हो यहां।”

फ्योंली मुस्करा उठी। बोली, “नहीं।”

अंधेरा हो चुका था। फ्योंली ने राजकुमार का फूलों से अभिनन्दन किया ओर फिर वह अपनी गुफा में चली गई। राजकुमार भी पेड़ के नीचे लेट गया।

सांझ का अस्त होता सूरज फिर सुबह को पहाड़ की चोटी पर आ झांका। राजकुमार जागा तो उसे घर का ख्याल आया। वह उदास हा उठा। फ्योंली उसके प्राणों में खिलने को आकुल हो उठी। अब उसका जाने का जी नहीं कर रहा था। सुबह कलेवा लेकर फ्योंली आई तो राजकुमार मन की बात न रोक सका, बोला, “एक बात कहना चाहता हूं। सुनोगी ?”

फ्योंली  ने पूछा, “क्या ?”

राजकुमार कुछ झिझका, पर हिम्मत करके बोला, “मेरे साथ चलोगी ? मैं तुम्हें राजरानी बनाकर पूजूंगा।”

फ्योंली  ने कहा, “नहीं, रानी बनकर मैं क्या करूंगी।”

 राजकुमार ने कहा, “मैं तुम्हें प्यार करता हूं। तुम्हारे बिना जी नहीं सकता।”

फ्योंली ने जवाब दिया, “पर वहां यह वन, ये पेड़, ये फूल, ये नदियां और ये पक्षी नहीं होंगे।”

राजकुमार ने कहा, “वहां इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। मेरे राजमहल में हर तरह से सुख से रहोगी। यहां वन में क्या रखा है !”

फ्योंली ने कहा, “आदमी ने अपने लिए एक बनावटी जिन्दगी बना रखी है। उसे मैं सुख नहीं मानती।”

राजकुमार इसका क्या जवाब देता ! फ्योंली ने सोचा-इतनी सुंदरता, इतना प्यार, सचमुच मुझे आदमियों के बीच कहां मिलेगा ? आदमी एक-दूसरे को सुखी बनाने के लिए संगठित जरूर हुआ है, पर वही सहंगठन उसके दु:खों का कारण भी है। आज मैं अकेली हूं, पर मेरे दिल में डाह नहीं है, कसक नहीं है। पर वहां? वहां इतना खुलापन कहां होगा।

पर उसके भीतर बैठा कोई उससे कुछ और भी कह रहा था। आखिर नारी को सुहाग भी तो चाहिए। यौवन में लालसा होती ही है।

वह एकदम कांप उठी; पर अंत में उसकी भावना उसे राजकुमार के साथ खींच ले ही गई। उसने राजकुमार की बात मान ली।

फिर क्या था ! वे दोनों उसी दिन चल पड़े। पशु-पक्षी आये। सबने उन्हें विदा दी। उनकी आंखों में आंसू थे।

राजकुमार उसे लेकर अपने राज्य में पहुंचा। दानों बेहद खुश थे। वह अब रानी थी। राजकुमार उसे प्राणों से ज्यादा प्यार करता था। वहां वन से भी ज्यादा सुख था। राजमहल में भला किस बात की कमी हो सकती थी ! खाने के लिए तरह-तरह के भोजन थे, सेवा के लिए दासियां ओर दिल बहलाने कि लिए नर्तकियां। यही नहीं, दिखाने के लिए ऐश्वर्य और जताने के लिए अधिकार था।

दिन बीतते गये। सुबह का सूरज शाम को ढलता रहा। कई दिनों तक उसके भाई-बहन उसे याद करते रहे। पर वही तो गई थी, बाकी जो जहां था, वहीं था। कुछ दिन बाद पंछी पहले की तरह बोलने लगे, फूल फूलने लगे।

पर एक दिन फ्योंली को लगा, जैसे उसके जीवन की उमंग खो गई हो।

राजमहल में हीरे ओर मोतियों की चमक जरूर थी, पर न फूलों का-सा भोलापन था और न पंछियों की-सी पवित्रता थी। अब राजमहल की दीवारें जैसे उसकी सांस घोटे दे रही थीं। उसे लगता, जैसे वह वन उसे पुकार रहा है। अब उसके पास उसके भाई-बहन कहां थे? आदमी थे, डाह थी, लोभ था, लालच था। पर वह तो निर्मल प्यार की भूखी थी।

फिर उस जीवन में उसके लिए कोई रस न रहा। वह उदास रहने लगी। उसे एकांत अच्छा लगने लगा। राजकुमार नेउसे खुश करने की लाख कोशिशें कीं, पर उसका कुम्हलाया मन हरा न हो सका। कुछ दिन में उसकी तबीयत खराब हो गई और वह बिस्तर पर जा पड़ी।

थोड़े ही दिनों में उसका चमकता चेहरा पीला पड़ गया। वह मुरझा गई। किसी पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगा देने की कोशिश बेकार गई। उसके जीने की अब कोई आशा न रही।

एक दिन उसने राजकुमार से कहा, “मैं अब नहीं जीऊंगी। मेरी एक आखिरी चाह है। पूरी करोगे?”

राजकुमार ने कहा, “जरूर।”

फ्योंली ने लम्बी सांस लेते हुए कहा, “कभी अगर शिकार को जाओ तो मेरे वन के उन भाई-बहनों को मत मारना और जब मैं मर जाऊं तो मुझे पहाड़ की उसी चोटी पर गाड़ देना, जहां वे रहते हैं।”

इसके बाद, उसके प्राण पखेरू उड़ गये।

राजकुमार ने उसे उसी पहाड़ की चोटी पर गाड़कर उसकी आखिरी इच्छा पूरी की। वन के पशु-पक्षियों ने-उसके उन भाई-बहनों ने-सुना तो बड़े दु:खी हुए। हवा ने सिसकी भरी, फल गिर गये और लताएं कुम्हला उठीं। राजकुमार मन मसोसकर रह गया।

आदमी ही मरते हैं। धरती सदा अमर है। एक ओर पेड़ सूखता है, दूसरी ओर अंकुर फूटते हैं। इसी का नाम जिन्दगी है। कुछ दिन बाद फिर प्राणों की एक सिसकी सुनाई दी। पहाड़ की चोटी पर, जहां फ्योंली गाड़ दी गई थी, वहां पर एक पौधा और उस पर एक सुन्दर-सा फूल उग आया और लोग उसे ‘फ्योंली’ कहने लगे।

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