उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खेती-बाड़ी से जुड़े अधिकतर कार्य महिलाओं के द्वारा ही किये जाते हैं। चाहे निराई-गुड़ाई का कार्य हो, खेतों में धान की रोपाई करना हो या मोव सराई यानि गोबर की खाद को खेतों तक पहुंचाना हो, ये सभी कार्य हमारी मातृशक्ति ही करती हैं। आखिर इतना सारा काम एक साथ कैसे समय पर पूर्ण करती हैं उत्तराखंड की महिलाएं ? आईये विस्तृत में जानते हैं।
पहाड़ों की महिलाओं का यह सारा काम होता है उनकी आपसी एकता, मेलजोल और स्नेह से चलने वाली ‘पल्ट प्रथा’ (Palt Pratha) से। यह एक प्रकार की श्रम विनिमय प्रणाली है, जहां महिलाएं बारी-बारी से प्रत्येक परिवार के खेतों में काम करने में मदद करते हैं।
काम करने का एक दिन निश्चित होता है कि फलां दिन इस परिवार के यहां सभी महिलाएं अथवा पुरुष उनके कार्यों में अपनी सहभागिता करेंगी। श्रम करने का यह तब तक सिलसिला जारी रहता है जब तक सभी का कार्य पूर्ण न हो जाये।
पल्ट लगाने के लिए लोग दूसरे के खेतों में करीब 4 से 8 घंटे तक काम करते हैं और जितने लोग वहां काम करते हैं पल्ट की संख्या उतनी ही गिनी जाती है यानी आज मेरे यहाँ 10 लोगों ने काम किया है तो मुझे ही आगामी दिनों में उन 10 लोगों के यहां काम करना होगा और इसे स्थानीय भाषा में ‘पल्ट तारना’ कहते हैं।
पल्ट प्रथा क्या है ?
“पल्ट” शब्द का अर्थ है बारी या पारी।
यह एक पारम्परिक प्रथा है, जो मुख्य रूप से उत्तराखंड के कुमाऊँ के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है। जो सामान्यतः खेती-बाड़ी से जुड़े कार्यों जैसे धान रोपाई, निराई-गुड़ाई ,गेहूं की कटाई, मड़ाई, घास कटाई, जैविक खाद की सराई आदि में अपनाई जाती है। इस प्रथा में महिलाओं की प्रमुख भूमिका होती है। सहयोग की यह प्रथा पहाड़ों में खेती से जुड़ें कार्यों तक सीमित नहीं है। यहाँ यह प्रथा शादी-ब्याह के सामान लाने, घर निर्माण के लिए पत्थर, ईंट को लाने, लकड़ी काटने आदि विभिन्न कार्यों के लिए भी अपनाई जाती है।
पल्ट के लिए सम्बंधित परिवार अपने काम के लिए दूसरे परिवार के लोगों को आमंत्रित करता है, जिसमें वह एक परिवार से एक या उससे भी अधिक लोगों को बुला सकता है। वह जितने लोगों को बुलाता है, सम्बंधित व्यक्ति पर उतने पल्ट लग जाते हैं यानि वह परिवार भी अगली बार उस व्यक्ति या परिवार के कामों में उनके ही व्यक्तियों या उतनी बार जाता है।
पल्ट प्रथा का विवरण:
- श्रम विनिमय: पल्ट प्रथा में, लोग एक-दूसरे के खेतों में काम करने के लिए एक साथ आते हैं, और बदले में, उन्हें भी उसी तरह से दूसरों के खेतों में काम करने में मदद मिलती है।
- सामूहिक कार्य: यह प्रथा सामूहिक कार्य का एक रूप है, जहां समुदाय के सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं, जिससे काम आसानी से और जल्दी हो जाता है।
- पारिवारिक संबंध: पल्ट प्रथा अक्सर पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को मजबूत करती है, क्योंकि इसमें लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं और एक-दूसरे की मदद करते हैं।
आर्थिक और सांस्कृतिक लाभ
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मजदूरी का आदान-प्रदान: इसमें पैसे का लेन-देन नहीं होता हैं बल्कि हर परिवार के लोग दूसरे के लिए काम करते हैं। यह बराबरी और सम्मान की भावना को बढ़ाता है।
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समय पर कार्य पूर्ण होना: इस प्रकार के सहयोग से हर किसी परिवार का कार्य समय पर पूर्ण हो जाता है। समय पर कार्य होने से फसल की गुणवत्ता बेहतर होती है। वहीं इस प्रथा में धन का कोई लेनदेन नहीं होने से लोगों को कोई भी आर्थिक भार नहीं पड़ता है।
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सामाजिक जुड़ाव: यह प्रथा लोगों के बीच आपसी सहयोग, मेलजोल और स्नेह को बढ़ावा देती है।
बदलते समय में पल्ट प्रथा की स्थिति
कारण जिनसे प्रथा का क्षय हुआ:
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आधुनिक कृषि तकनीक और मशीनें – पहाड़ों में भी खेती से जुड़े काम अब आधुनिक ट्रैक्टर, थ्रेसर जैसी मशीनों से होने लगी हैं, जिसमें श्रम की आवश्यकता कम होती हैं।
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गाँवों से पलायन – पहाड़ी गांवों से लोगों ने शहरों की ओर पलायन किया है, जिससे अब गांवों में खेती-बाड़ी में कमी आने लगी है।
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भुगतान आधारित मजदूरी – अब श्रमिक किराये पर उपलब्ध हैं, जिससे सामूहिक सहयोग की जगह पैसे ने ले ली।
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व्यक्तिवाद और निजीकरण की सोच – कुछ वर्षों से लोगों में सामाजिकता की जगह अब अलगाव की प्रवृत्ति बढ़ी है।
वर्तमान में यह प्रथा
आज भी कुमाऊँ के कुछ दूरस्थ गाँवों में, विशेषकर पिथौरागढ़, बागेश्वर, चम्पावत और अल्मोड़ा के ग्रामीण अंचलों में यह परंपरा धान रोपाई, गुड़ाई, निराई आदि कार्यों के समय दिखाई देती है। यहाँ ये सभी कार्य अधिकतर पल्ट करके ही निभाये जाते हैं।
क्या सीख देती है पल्ट प्रथा?
इस प्रथा में “एक का काम, सबका काम” वाली भावना निहित होती है। जो आज के युग में, जब सामाजिक अलगाव बढ़ रहा है, बहुत बड़ी प्रेरणा बन सकती है।
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यह हमें सिखाती है कि बिना किसी आर्थिक सौदे के, केवल आपसी विश्वास और सहयोग से भी समाज तरक्की कर सकता है।
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साथ ही, यह स्थानीय आत्मनिर्भरता का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे विचारों को व्यवहारिक रूप देता है।
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निष्कर्ष
पल्ट प्रथा केवल खेती का तरीका नहीं, बल्कि पहाड़ी जीवन की आत्मा है, जहाँ श्रम, सहयोग और अपनत्व की भावना एक साथ पनपते हैं। जिसे निभाने का पूरा श्रेय यहाँ की कामकाजी महिलाओं को जाता है।
आज, जब समाज पुनः स्थानीयता, आत्मनिर्भरता और सामुदायिक सहयोग की ओर देख रहा है, तो ऐसी परंपराओं को दस्तावेज़ करना और पुनर्जीवित करना हमारी जिम्मेदारी बनती है।
हो सकता है पल्ट प्रथा आज के युग में पहले जैसी न हो, लेकिन इसके मूल विचार सहयोग, सामूहिकता और समरसता आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।