भारत विविध संस्कृतियों, परंपराओं और त्योहारों का देश है। हर क्षेत्र की अपनी विशेषता है जो वहां के लोगों की धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को दर्शाती है। उत्तराखंड के चमोली जिले में मनाया जाने वाला रम्माण उत्सव भी एक ऐसा ही अनूठा त्योहार है, जिसे यूनेस्को ने वर्ष 2009 में “Intangible Cultural Heritage” की सूची में शामिल किया है। यह उत्सव सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला एक प्राचीन धार्मिक उत्सव है। रम्माण एक मुखौटा नृत्य है, जो संवादों के बिना ढोल, दमाऊं और भंकोरे जैसे पारंपरिक वाद्यों की धुन के साथ किया जाता है।
क्या है रम्माण:
रम्माण उत्सव उत्तराखंड की लोक संस्कृति और धार्मिक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जिसमें एक पखवाड़े तक विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान संपन्न किये जाते हैं। यह रामायण के विभिन्न प्रसंगों को मुखौटा नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है, जिसमें संवाद नहीं होते, बल्कि जागर गीतों, ढोल और ताल के साथ नृत्य और प्रदर्शन किया जाता है। इस दौरान भुम्याल देवता की वार्षिक पूजा भी की जाती है। परम्परानुसार रम्माण के मंचन में 18 मुखौटे, 18 ताल. 12 ढोल, 12 दमाऊं एवं 8 भंकोरे प्रयोग होते हैं।
एक नजर
इतिहास | 500 वर्ष पुराना |
आयोजन | सलूड़ गांव डूंग्रा (पैनखण्डा), जोशीमठ, चमोली |
तिथि | प्रत्येक वर्ष बैशाख माह (अप्रैल) |
शैली | जागर, भल्ला |
वाद्य यंत्र | ढोल, दमाऊं, झांझर, मंजीरे, भंकोरे |
परिधान | घाघरा, चूड़ीदार पायजामा, रेशमी साफे |
नृत्य नाटिका | 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, 8 भंकोरे |
मंचन | गायन शैली |
विशेष चरित्र | कुरू जोगी, बण्यां–बण्यांण, माल, म्योर-मुरैण नृत्य |
विश्व सांस्कृतिक धरोहर | वर्ष 2009 |
यूनेस्को द्वारा मान्यता:
इस उत्सव को यूनेस्को द्वारा 2009 में अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल किया गया था, जो इसकी सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व को दर्शाता है। रम्माण उत्सव की यह परम्परा 500 वर्ष पुरानी है लेकिन यह स्थानीय परम्परा तक ही सीमित थी। इसे वैश्विक स्तर तक पहुंचाने का श्रेय डॉ. कुशल सिंह भण्डारी (सलूड-डूंग्रा), प्रो: डीआर पुरोहित, पूर्व निदेशक केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय को जाता है। श्री भंडारी द्वारा उत्सव का दस्तावेजीकरण किया गया। गढ़वाल विश्वविद्यालय के सहयोग से वर्ष 2008 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में रम्माण की प्रस्तुति की गई। इसके बाद इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने रम्माण उत्सव का व्यापक दस्तावेजीकरण किया। इस लोक उत्सव की महत्ता को देखते हुए यूनेस्को द्वारा 2 अक्टूबर 2009 में इसे विश्व की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया।
स्थान और समय:
रम्माण उत्सव उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ गांव में हर साल वैशाख माह में आयोजित किया जाता है, जो बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने से पहले संपन्न होता है। इसके अलावा डुंग्रा, बरोशी, सेलंग आदि गांवों में भी इसका आयोजन होता है। वर्तमान में प्रतिवर्ष सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत इस उत्सव का आयोजन करती है।
अद्वितीय विशेषताएं:
यह उत्सव अपनी विशिष्ट नाट्य शैली, मुखौटों और लोक परंपराओं के लिए जाना जाता है। रम्माण में रामायण की कथा के साथ-साथ अन्य पौराणिक और लोक पात्रों को भी दर्शाया जाता है। इस दौरान लोगों में बण्यां-बण्यांण नृत्य, म्योर-मुरैण नृत्य का भी मंचन होता है।
संरक्षण:
रम्माण उत्सव के संरक्षण के लिए स्थानीय और प्रशासन स्तर पर कई प्रयास किए जा रहे हैं, ताकि यह परंपरा आने वाली पीढ़ियों तक पहुंच सके।हम सभी का प्रयास होना चाहिए कि हम अपनी इस धरोहर को आगे ले जाने के लिए हमेशा प्रयासरत रहें।
महत्त्व:
रम्माण केवल एक पर्व नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक दस्तावेज है, जो पीढ़ियों से मौखिक परंपरा, लोककथाओं और सांस्कृतिक मूल्यों को संजोए हुए है। यह पर्व सामाजिक एकता, पारंपरिक ज्ञान, और सामुदायिक सहभागिता को बढ़ावा देता है।
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निष्कर्ष
रम्माण उत्सव उत्तराखंड की सांस्कृतिक समृद्धि का एक उज्ज्वल प्रतीक है। यह न केवल धार्मिक आस्था का परिचायक है, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण का सशक्त माध्यम भी है। ऐसे त्योहारों के माध्यम से हम अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं और लोक संस्कृति को नई पीढ़ियों तक पहुँचाते हैं।