गोपाल बाबू गोस्वामी: कुमाऊँनी लोकसंगीत के अमर स्वर।

On: Sunday, May 18, 2025 3:49 PM
Gopal Babu Goswami

Gopal Babu Goswami उत्तराखंड की सुरम्य वादियों, झरनों की कलकल और घाटियों की गूंजती आवाज़ों में जो मधुर संगीत रचा-बसा है, उसे स्वर देने वाले कुछ महान लोक कलाकारों में स्वर्गीय ‘गोपाल बाबू गोस्वामी’ का नाम अमर है। कुमाऊँ की धरती पर जन्मे इस साधारण परिवार के असाधारण व्यक्तित्व ने अपने गीतों के माध्यम से न केवल पहाड़ की संस्कृति, प्रेम और पीड़ा को स्वरबद्ध किया, बल्कि कुमाऊँनी लोकसंगीत को एक नई पहचान और गरिमा प्रदान की।

उनका जीवन एक ऐसे लोकगायक की कहानी है, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने भीतर के संगीत को जीवित रखा, उसे संवारा और उसे जन-जन तक पहुँचाया। उनके गीत केवल मनोरंजन नहीं थे, वे जीवन की झलकियां, संवेदनाओं की अभिव्यक्तियां और संस्कृति की आत्मा थे।

यह पोस्ट गोपाल बाबू गोस्वामी जी के जीवन, उनके संघर्षों, उनकी रचनात्मकता और उनके योगदान को स्मरण करते हुए, उस लोक कलाकार को श्रद्धांजलि है जिसने उत्तराखंड के संगीत को शब्दों और सुरों की वह ऊँचाई दी, जिसे आज भी हम आदरपूर्वक सुनते हैं और गुनगुनाते हैं।

जीवन परिचय 

  • जन्म: 2 फरवरी 1941
  • स्थान: गाँव चांदिखेत, जनपद अल्मोड़ा, उत्तराखं
  • पिता: श्री मोहन गिरी
  • माता: श्रीमती चनुली देवी

संघर्ष से शुरू हुआ एक सुरमयी सफर

गोपाल बाबू का जीवन शुरुआत से ही संघर्षों से भरा रहा। अत्यंत साधारण और आर्थिक रूप से कमजोर परिवार में जन्मे गोस्वामी जी के पिता मोहन गिरी और माता चनुली देवी थे। बचपन से ही उनमें गायन के प्रति झुकाव था, पर घर की आर्थिक हालत और पारिवारिक सोच के कारण उन्हें प्रोत्साहन नहीं मिल पाया। आठवीं कक्षा से पहले ही पिता का देहांत हो जाने के कारण पढ़ाई छोड़कर उन्हें परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ी।

जीवन यापन के लिए उन्होंने ट्रक ड्राइवर से लेकर मेलों में जादूगरी दिखाने जैसे कई काम किए। पर इन तमाशों के बीच उनका मन हमेशा गीतों में ही रमता था। मेलों में गाए गए उनके गीतों ने लोगों का ध्यान खींचा और यही मंच बना उनकी प्रतिभा के उद्घाटन का।

प्रतिभा की खोज और पहला बड़ा अवसर

नंदा देवी मेले में गीत गाते समय संगीतकार ब्रजेन्द्रलाल शाह की नजर उन पर पड़ी। उन्होंने गोस्वामी जी को गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ के पास भेजा। गिर्दा ने उनकी आवाज को तराशा और 1971 में नैनीताल में उन्हें गीत और नाटक प्रभाग के तहत एक नौकरी दिलाई। इस सरकारी जिम्मेदारी के साथ ही गोस्वामी जी ने कुमाऊँनी गीतों की दुनिया में कदम रखा।

“कैले बजे मुरूली ओ बैणा” से मिली पहचान

उनका पहला रिकॉर्डेड गीत “कैले बजे मुरूली ओ बैणा” लखनऊ में रिकॉर्ड हुआ था, जो नजीबाबाद आकाशवाणी से प्रसारित हुआ। इस गीत ने उन्हें एक पहचान दी और उनकी लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती चली गई।

कसेट युग के चमकते सितारे

साल 1976 में एच. एम. वी. से उनका पहला कसेट आया- एक ऐसी उपलब्धि जो उस दौर में किसी सपने से कम नहीं थी। इसके बाद पॉलिडोर जैसी प्रतिष्ठित कसेट कंपनियों से भी उनके एल्बम आए। उनके गीत जैसे:

  • हिमालाको ऊँचो डाना प्यारो मेरो गांव
  • छोड़ दे मेरो हाथा में ब्रह्मचारी छुं
  • भुर भुरु उज्याव हैगो
  • जा चेली जा सौरास
  • आंखी तेरी काई-काई

…लोगों की जुबां पर चढ़ गए। उनकी आवाज में पहाड़ का दर्द, प्रेम, संस्कृति और सौंदर्य झलकता था।

नारी सौंदर्य और लोकजीवन पर आधारित गीत

गोस्वामी जी की खासियत थी लोकजीवन के हर पहलू को गीतों में पिरोना। नारी सौंदर्य पर आधारित उनका गीत हाय तेरी रूमाला गुलाबी मुखड़ी, या फिर जीजा-साली संवाद पर आधारित “ओ भीना कसकै जानू दोरिहाटा”, सूर्योदय पर लिखा “उठ सुवा उज्याऊ हैगो” — ऐसे गीतों ने उन्हें आमजन से जोड़ दिया।

लेखन में भी उतनी ही गहराई

गोस्वामी जी न सिर्फ एक गायक थे, बल्कि एक संवेदनशील लेखक भी थे। उन्होंने कुमाऊँनी और हिंदी में कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें प्रमुख हैं:

  • गीत माला (कुमाऊँनी)
  • दर्पण
  • राष्ट्रज्योति (हिंदी)
  • उत्तराखण्ड

उनकी एक अप्रकाशित पुस्तक “उज्याव” भी है। अधिकांश गीतों के बोल उन्होंने स्वयं लिखे थे, जिससे उनकी रचनात्मकता का व्यापक परिचय मिलता है।

अन्य कलाकारों के साथ सहयोग

गोस्वामी जी ने चंद्रा बिष्ट जैसी गायिकाओं के साथ 15 से अधिक कैसेट निकाले। उनकी युगल गायन शैली, खासकर संवादधर्मी गीतों में, काफी लोकप्रिय रही।

जीवन का अंतिम पड़ाव और विरासत

नौकरी के दौरान उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो गया। लंबी बीमारी के बाद 26 नवंबर 1996 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। पर वे अपनी मृत्यु के बाद भी जीवित हैं- 500 से अधिक गीतों की धरोहर के रूप में।

नरेंद्र सिंह नेगी और नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा

उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी भी गोस्वामी जी के प्रशंसकों में रहे हैं। नेगी जी स्वयं कहते हैं कि वे आज भी “हिमालाको ऊँचो डाना…” जैसे गीत गुनगुनाते हैं। उनके गीतों की गहराई और सौंदर्य आज भी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत हैं।

समापन विचार:

गोपाल बाबू गोस्वामी सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि उत्तराखंडी लोकसंस्कृति की आत्मा हैं। उनकी आवाज में कुमाऊँ की मिट्टी की सौंधी खुशबू है, जिसने लोकसंगीत को घर-घर पहुंचाया। उनके गीत, उनका संघर्ष, उनकी लेखनी – सब कुछ आज भी हमारे लिए प्रेरणा है।

“जा चेली जा सौरास” की वो टीस भरी विदाई आज भी कानों में गूंजती है और दिल को छू जाती है।”

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