उत्तराखंड की अधिष्ठात्री देवी माँ नंदा पूरे प्रदेश में आस्था और श्रद्धा का प्रतीक मानी जाती हैं। भाद्रपद मास (अगस्त–सितम्बर) में कुमाऊँ और गढ़वाल के अनेक गाँवों में माँ नंदा की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। इन्हीं में बागेश्वर जिले का पोथिंग गाँव भी शामिल है, जहाँ स्थित माँ नंदा भगवती के प्राचीन मंदिर में यह पूजा आठूं और स्योपाती के रूप में संपन्न होती है। इस अवसर पर मंदिर प्रांगण में आस्था, लोकसंस्कृति और परंपराओं का अद्भुत संगम होता है। हर वर्ष मंदिर में सैकड़ों श्रद्धालु माता के दर्शन एवं आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए यहाँ पहुँचते हैं।
पोथिंग स्थित भगवती मंदिर बागेश्वर जिले के प्रमुख मंदिरों में से एक है, वहीं यह स्थल दानपुर पट्टी के तीन प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है कि यहाँ माँ नंदा ने कैलाश जाते समय एक रात्रि के लिए विश्राम किया था। प्रतिवर्ष मंदिर में नंदा माई की पूजा भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होती है, जहाँ परम्परानुसार अष्टमी अथवा पंचमी तिथि को भव्य पूजा का आयोजन होता है। आईये विस्तृत में जानते हैं पोथिंग गांव स्थित भगवती माता मंदिर और वहां होने वाली भव्य पूजा के बारे में –
आठों और स्योपाती पूजा
‘पोथिंग की माई’ नाम से विख्यात माँ भगवती के इस धाम में पूजा आठों और स्योपाती के रूप में होती है। एक वर्ष यहाँ आठों पूजा और एक वर्ष स्योपाती का आयोजन होता है। यह परम्परा पिछले 150 से अधिक वर्षों से चली आ रही है।
- आठों पूजा : देवी भगवती की यह पूजा प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तिथि तक होती है। जिसकी शुरुआत हरेला पर्व के दिन मित्र गांव उत्तरौड़ा से कदली वृक्ष लाने से होती है। यह वृक्ष मंदिर के पश्चित दिशा में निर्धारित स्थान पर रोपा जाता है। भाद्रपद शुक्ल सप्तमी तिथि को इस कदली वृक्ष के तने को मंदिर में लाया जाता है और अष्टमी तिथि को इसका उपयोग नंदा माई के मूर्ति निर्माण में किया जाता है। आठों पूजा यहाँ सबसे बड़ी मानी जाती है। इस दौरान मंदिर में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान संपन्न कराये जाते हैं। आठों पूजा पूरे आठ दिन तक चलती है। इस दौरान देवी भगवती के अन्य गणों तथा गांव की सुख-समृद्धि और रक्षक माने जाने वाले विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा का विधान है।
- स्योपाती : इस पूजा की शुरुआत भी भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा से हो जाती है और पंचमी तिथि को मंदिर में भव्य पूजा का आयोजन होता है। स्योपाती पूजा में यहाँ कदली वृक्ष आमंत्रित नहीं किया जाता है और माता की मूर्ति का निर्माण ‘पाती’ से तैयार किया जाता है। इस पूजा में माँ नंदा के मुख़ार दर्शन दूसरे मंदिर के गर्भगृह में होते हैं। जो मुख्य मंदिर के ठीक पीछे बना है।
अनाज भरने की पारम्परिक रीति
पोथिंग गांव स्थित नंदा माई के इस मंदिर में पूजा की सम्पूर्ण सामग्री गढ़िया परिवार आपसी सहयोग से एकत्रित करते हैं। ढोल नगाड़ों की भक्तिमय धुन पर निर्धारित अनाज (गेहूँ), फूल – पाती और आवश्यक धन के साथ ग्रामीण प्रतिपदा तिथि को गांव के मध्य बने तिपारी में पहुँचते हैं, जहाँ देवी भगवती, लाटू देवता, ग्वल ज्यू आदि के डांगर अवतरित होकर निर्धारित मात्रा में अनाज (गेहूं ) को भरते हैं। अनाज भरने की इसी रस्म के साथ पूजा का शुभारम्भ हो जाता है। यहाँ यह रीति पीढ़ियों से चली आ रही है।
ग्रामीणों द्वारा अर्पित किये गए इस अनाज (गेहूँ) को देवी के घराट (पनचक्की) में पीसा जाता है। जिसका उपयोग मुख्य पूजा के दिन मंदिर में रोट-भोग, पूड़ियाँ बनाने के लिए किया जाता है।
तिपारी में रात्रि जागरण
पोथिंग में आयोजित होने वाली माँ नंदा भगवती की पूजा तिपारी से प्रारम्भ होती है और अंतिम दिन मुख्य मंदिर जिसे स्थानीय लोग ‘डुबार’ के नाम से जानते हैं में भव्य धार्मिक अनुष्ठान के साथ संपन्न होती है। तिपारी/तिबारी में रात्रि जागरण होता है, जो आठों पूजा में षष्ठी तिथि और सौपाती पूजा में चतुर्थी तिथि तक आयोजित होती हैं।
यहाँ रात्रि जागरण में पारम्परिक ढोल, दमाऊं, नगाड़ों, भकोर और झांजर की धुन पर विभिन्न प्रहरों में मंदिर के चारों ओर प्रक्रिमा करते हुए आरती होती हैं और माता भगवती, उनके धर्मभाई लाटू देवता, गोलू देवता, नौलिंग-बंज्यैण, छुरमल, ईश्वरी, भोसिंग, चनणियां आदि देवी-देवता, गण अपने डांगरों में अवतरित होकर सभी को दर्शन और आशीर्वाद देते हैं। वहीं इस दौरान हुड़के की थाप पर मेलार्थी झोड़ा-चाँचरी का गायन करते हैं।
मुखार दर्शन
पोथिंग भगवती मंदिर में नंदा माई के ‘मुख़ार’ दर्शन वर्ष में एक दिन वह भी कुछ घंटों के लिए होते हैं। यह सौभाग्य श्रद्धालुओं को मंदिर के गर्भ गृह में अष्टमी अथवा पंचमी तिथि को प्राप्त होता है। इस दिन यहाँ उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों से श्रद्धालु पहुँचते हैं और वे मंदिर में माई के आगे खड़े होकर, पूजा -पाठ इत्यादि कर मनौती मांगते हैं। मनौती पूर्ण होने पर वे माई को घंटियां, ढोल-नगाड़े, निशाण, झांजर-भकौरे, स्वर्ण आभूषण, चुनरी आदि अर्पित करते हैं।
विभिन्न गांवों के अपने मायके पहुँची ध्याणीयां माता के दर्शन पूजन कर उनके मंदिर प्रांगण में लोकगीत गाते हैं। गोल घेरा बनाकर वे हुड़के की थाप पर झोड़ा -चांचरी का आयोजन करती हैं। इस दौरान पूरे पोथिंग गांव में भक्तिमय माहौल बना रहता है।
मोटी पूड़ियों का महाभोग
यहाँ मंदिर में मुख्य पूजा के दिन नंदा माई को हजारों की संख्या में मोटी वजनी पूड़ियों का भोग लगाया जाता है। वजनी पूड़ियों का भोग लगाने की यह परम्परा यहाँ पीढ़ियों से चली आ रही है। इन पूड़ियों को ही श्रद्धालुओं को प्रसाद स्वरूप दिया वितरित किया जाता है, जिसे प्राप्त करने के लिए श्रद्धालु घंटों का इन्तजार करते हैं।
इस प्रकार की मोटी पूड़ियाँ बनाने की परम्परा यहीं देखी जाती है। गहरे सुनहरे रंग की एक पूड़ी का वजन 500 ग्राम से अधिक का होता है, जो खाने में बेहद स्वादिष्ट होती हैं। यही पूड़ी इस मंदिर का प्रसाद है। जिसे लोग दूर-दूर तक भेजते हैं।
नंदा माई की विदाई
मंदिर के गर्भगृह में पूजा के दिन नंदा माई के मुख़ार को सुंदर पहाड़ी स्वर्ण नथ और अन्य पारम्परिक आभूषणों से सजी घूंघटी निकालकर सुबह से ही श्रद्धालुओं के लिए खोल दिया जाता है। दिन भर दूर-दूर से पहुंचे लोग मंदिर में पूजा-अनुष्ठान और माता के दर्शन करते हैं। हुड़के की थाप पर झोड़ा-चाँचरी गाते हैं। उसके बाद सायं माँ नंदा को उनके ससुराल कैलाश को विदा करने की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं। मायके के कलेऊ के रूप में खाजा (कच्चे चाँवल), पूड़ियाँ, मक्के, ककड़ी आदि उनके लिए साथ भेजा जाता है।
ग्रामीण और ध्याणीयां अश्रुपूरित आंखों से माँ नंदा को विदा करते हैं। इस दौरान माँ नंदा आश्वस्त करती हैं कि जब भी उन पर संकट आएगा, वह उनकी रक्षा के लिए लौट आएंगी। उसके बाद ढोल-नगाड़ों की धुन पर मां नंदा की विदाई होती है। यह पल यहाँ सबको भावुक करने वाला होता है। यहाँ विदाई के समय माँ नंदा के प्रति लोगों का अगाध प्रेम, आस्था और भक्ति देखने को मिलती है।
कैसे पहुंचे
जनपद मुख्यालय बागेश्वर से भगवती माता मंदिर पोथिंग की दूरी करीब 35 किलोमीटर है। यह दिव्य स्थल सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। यहाँ पहुंचे के लिए आसानी से टैक्सी उपलब्ध रहती हैं।
पोथिंग भगवती मंदिर में आयोजित नंदा माई की पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध लोकसंस्कृति, नंदा के प्रति उनकी आस्था, परंपरा और सामाजिक एकता का जीवंत उदाहरण है। आठों और स्योपाती जैसी सामंजस्य बनाये रखने वाली पूजा, अनाज भरने की परंपरा, वजनी पूड़ियों का महाभोग और भावनाओं से भरी विदाई – ये सभी पहलू इस पूजा को अति विशिष्ट बनाते हैं। भादो के महीने में यहाँ का परिवेश आस्था, विश्वास, लोकरंग और लोक संगीत से जीवंत हो उठता है।