गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ और उनकी प्रसिद्ध कवितायें।

On: Thursday, August 21, 2025 11:27 PM
girish tiwari girda poems

उत्तराखंड के प्रिय जनकवि, लेखक, संस्कृतिकर्मी और नाटककार गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ जन्म 9 सितंबर, 1945 को अल्मोड़ा के ज्योली हवालबाग (उत्तराखण्ड) में हुआ। उनके पिता का नाम हंसादत्त तिवारी और माता का नाम जीवंती तिवारी था। ‘गिर्दा’ की शुरुआती पढ़ाई अल्मोड़ा में हुई। बचपन से ही उनमें कलात्मक अभिरुचि थी। पढाई के बाद उन्होंने कुछ छोटी-मोटी नौकरिय़ां की, अन्तत: नैनीताल में ’गीत एवम नाट्य प्रभाग’ में नियुक्त हुए। चिपको आंदोलन, वन आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन और नदी बचाओ आदि आंदोलनों में गिर्दा सक्रिय रहे और उनके लिखे गीतों और कविताओं ने भी इन आन्दोलनों को ऊर्जा और सही दिशा दी। उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन के समय भी गिर्दा ने अपनी रचनात्मकता के जरिए सशक्त योगदान दिया।

नई पीढ़ी के युवाओं को प्रोत्साहित करने और यथासंभव रचनात्मक सहयोग देने में गिर्दा को विशेष खुशी होती थी। 22 अगस्त 2010 को हल्द्वानी में उनका निधन हुआ।

गिर्दा की स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व को लोगों तक पहुंचाने के उद्देश्य से गिर्दा की कुछ प्रमुख कवितायें यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। जो इस प्रकार हैं –

जैंता एक दिन तो आलो

ततुक नी लगा उदेख, घुणन मुनई न टेक
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
ततुक नी लगा उदेख, घुणन मुनई न टेक
जैंता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में….

जै दिन काटुलि रात ब्यालि, पौ फाटला द्यो कङालो-२
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैंता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में….

जै दिन नान ठुलो नि रौलो, जै दिन त्यरो-म्यरो नि होलो-२
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैंता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में….

जै दिन चोर नी फलाला, कै को जोर नी चलोलो-२
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैंता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में….

चाहे हम नि ल्यै सकूं, चाहे तुम नि ल्यै सको-२
जैंता क्वै-ना-क्वै त ल्यालो, ऊ दिन यो दुनी में
जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैंता क्वै ना क्वै त ल्यालो ऊ दिन यो दुनी में

उत्तराखंड मेरि मातृभूमि 

उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि यो मेरी पितृभूमि ,
ओ भूमि तेरी जय-जयकारा… म्यर हिमाला।

ख्वार मुकुटो तेरो ह्युं झलको, ख्वार मुकुटो तेरो ह्युं झलको,
छलकी गाड़ गंगा की धारा… म्यर हिमाला।

तली-तली तराई कुनि, तली-तली तराई कुनि,
ओ कुनि मली-मली भाभरा …म्यर हिमाला।

बद्री केदारा का द्वार छाना, बद्री केदारा का द्वार छाना,
म्यरा कनखल हरिद्वारा… म्यर हिमाला।

काली धौली का बलि छाना जानी, काली धौली का बलि छाना जानी,
वी बाटा नान ठुला कैलाशा… म्यर हिमाला।

पार्वती को मेरो मैत ये छा, पार्वती को मेरो मैत ये छा,
ओ यां छौ शिवज्यू कौ सौरासा…म्यर हिमाला।

धन मयेड़ी मेरो यां जनमा, धन मयेड़ी मेरो यां जनमा ….
ओ भयो तेरी कोखि महान… म्यर हिमाला।

मरी जूंलो तो तरी जूंल, मरी जूंलो तो तरी जूंलो…
ओ ईजू ऐल त्यार बाना… म्यर हिमाला।

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ

आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागौ-जागौ हो म्यरा लाल,
नी करण दियौ हमरी निलामी, नी करण दियौ हमरो हलाल।

विचारने की छां यां रौजै फानी छौ, घुर घ्वां हुने रुंछौ यां रात्तै-ब्याल,
दै की जै हानि भै यो हमरो समाज, भलिकै नी फानला भानै फुटि जाल।

बात यो आजै कि न्हेति पुराणि छौ, छांणि ल्हियो इतिहास लै ये बताल,
हमलै जनन के कानी में बैठायो, वों हमरै फिरी बणि जानी काल।

अजि जांलै के के हक दे उनले, खालि छोडूनी रांडा स्यालै जै टोक्याल,
ओड़, बारुणी हम कुल्ली कभाणिनाका, सांचि बताओ धें कैले पुछि हाल।

लुप-लुप किड़ पड़ी यो व्यवस्था कें, ज्यून धरणे की भें यो सब चाल,
हमारा नामे की तो भेली उखेलौधे, तैका भितर स्यांणक जिबाड़ लै हवाल।

भोट मांगणी च्वाख चुपड़ा जतुक छन, रात-स्पात सबनैकि जेड़िया भै खाल,
उनरे सुकरम यो पिड़े रैई आज, आजि जांणि अघिल कां जांलै पिड़ाल।
ढुंग बेच्यो माट बेच्यो, बेचि खै बज्याणी, लिस खोपि खोपि मेरी उधेड़ी दी खाल,
न्यौलि. चांचरी, झवाड़, छपेली बेच्या मेरा, बेचि दी अरणो घाणी, ठण्डो पाणि, ठण्डी बयाल।

कैसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न अक्षर कान उखाड़ें, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ न भाषा जख़्म उभारे, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ अंक सच-सच बतलाएँ, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ प्रश्न हल तक पहुँचाएँ, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न हो झूठ का दिखव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ न सूट-बूट का हव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ किताबें निर्भय बोलें, ऐसा हो स्कूल हमारा
मन के पन्ने-पन्ने खोलें, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ न कोई बात छुपाए, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ न कोई दर्द दुखाए, ऐसा हो स्कूल हमारा

जहाँ फूल स्वाभाविक महकें, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहाँ बालपन जी भर चहकें, ऐसा हो स्कूल हमारा

ओ दिगौ लाली

ओ हो रेऽऽ, आय हाय रेऽऽ,
ओ दिगौ लाली।
छानी-खरिक में धुआँ लगा है,
ओ हो रेऽऽ, ओ दिगौ लाली।

ठंगुले की बाखली, किलै पंगुरै है,
द्वि-दाँ कै द्वि धार छूटी है।
और दुहने वाली का हिया भरा है,
ओ हो रेऽऽ आय हाय रेऽऽ
मन्दी धिनाली।

मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है..
गीली है लकड़ी, गीला धुंआ है,
साग क्या छौका कि गौं महका है,
ओ हो रे, आय हाय रेऽऽ
गन्ध निराली…।

काँसे की थाली सा चाँद तका है,
ओ ईजाऽऽ ओ दिगौ लाली।
ओ हो रेऽऽ शाम निराली,
ओ हो रेऽऽ साँझ जून्याली।
जौयां मुरुली का शोर लगा है,
ओ हो रेऽऽ लागी कुत्क्याली।
ओ हो रेऽऽओ दिगौ लाली………..!

हालात-ए-सरकार

हालाते सरकार ऐसी हो पड़ी तो क्या करें?
हो गई लाजिम जलानी झोपड़ी तो क्या करें?
हादसा बस यों कि बच्चों में उछाली कंकरी,
वो पलट के गोलाबारी हो गई तो क्या करें?
गोलियां कोई खुद निशाना बांध कर दागी थी क्या?
खुद निशाने पै पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?
खाम-खां ही ताड़ तिल का कर दिया करते हैं लोग,
वो पुलिस है, उससे हत्या हो पड़ी तो क्या करें?
कांड पर संसद तलक ने शोक परकट कर दिया,
जनता अपनी लाश बाबत रो पड़ी तो क्या करें?
आप इतनी बात लेकर बेवजह नाशाद हैं,
रेजगारी जेब की थी, खो पड़ी तो क्या करें?
आप जैसी दूरदृष्टि, आप जैसे हौंसले,
देश की आत्मा गर सो पड़ी तो क्या करें?

उलटबासियां

पानी बिन जमीन प्यासी, खेतों में भूख उदासी,
यह उलटबासियां नहीं कबीरा, खालिस खेल सियासी

लोहे का सर-पाँव काटकर, बीस बरस में हुये साठ के
अरे! मेरे ग्रामनिवासी कबीरा, झोपड़ पट्टी वासी

सोया बच्चा गाये लोरी, पहरेदार करे है चोरी
अरे! जुर्म करे है न्याय निवारण और न्याय करे है चोरी

बंगले में जंगला लग जाये और जंगल में बंगला लग जाए
अरे….बन बिल ऐसा लागू होगा, मरे भले बनबासी

नल की टोंटी जल को तरसे, हवाघरों में पानी बरसे
अरे! ये निर्माण किये अभियंता, मुआयना अधिशासी

जो कमाये सो रहे फकीरा, बैठे-ठाले भरे जखीरा।
भेद यही गहरा है कबीरा और दिखे बात जरा सी
पानी बिन जमीन प्यासी, खेतों में भूख उदासी..

बोल ब्योपारी तब क्या होगा?

एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ डूबती कश्तियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया- एक तरफ हो तुम।

अजी वाह! क्या बात तुम्हारी
तुम तो पानी के व्यापारी
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी, बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी

सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो
गंगा-यमुना की छाती पर, कंकड़-पत्थर कूट रहे हो

उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी
चलेगी कब तक ये मनमर्जी
जिस दिन डोलेगी ये धरती, सर से निकलेगी सब मस्ती

महल-चौबारे बह जायेंगे
खाली रौखड़ रह जायेंगे
बूंद-बूंद को तरसोगे जब, बोल व्यापारी-तब क्या होगा?
नगद-उधारी-तब क्या होगा??
आज भले ही मौज उड़ा लो
नदियों को प्यासा तड़पा लो
गंगा को कीचड़ कर डालो
लेकिन डोलेगी जब धरती-बोल व्यापारी-तब क्या होगा?

विश्व बैंक के टोकन धारी-तब क्या होगा?
योजनाकारी-तब क्या होगा?
नगद-उधारी तब क्या होगा?
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ-एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनिया-एक तरफ हो तुम।

ओ दिगौ लाली

ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
सावनी साँझ आकाश खुला है
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
छानी खरीकों में धुआं लगा है
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
थन लागी बाछी कि गै पंगुरी है
द्वी – द्वा, द्वी – द्वा दुधी धार छूटी है
दुहने वाली का हिया भरा है
ओ हो ये मन धौ धिनाली।
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है
गीली है लकड़ी कि गीला धुआं है
साग क्या छौंका है कि गौं महका है
ओ हो रे गंध निराली।
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
कांसे की थाल – सा चाँद टंका है
ओ हो रे साँझ जुन्याली।
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।
दूर कहीं कोई छेड़ रहा है
ओ हो रे न्योली “सोरयाली”
जौल्यां मुरुली का “सोर” लगा है
आइ – हाइ रे लागी कुतक्याली
ओ हो रे ओ दिगौ लाली।

रात उज्याली, घाम निमैलो

रात उज्याली, घाम निमैलो
डान-कानन् केशिया फूलो
शिवज्यु कैं मारी मुठ्ठी रंगे की
सारो हिमाल है गो छौ रंगिलो
हुलरी ऐगे बसंत की परी
फोकी गो जां-तां रंग पिंघलो
पिंघली आज नानों की झगुली
पिंघला ठुलों का टांक पिंघला
पिंघल पूर धरती पिछौड़ी
पिंघला आज अकासा बदला
हुलेरी ऐगे बसंते परी।
ध्यान टुटो छार फोक्का जोगी को
आज बिभूत जांलै पिंघली गे
मुल-मुल हंसै हिमालै की चेली
सुकिली हंसी थोलनै अनमनी गे
हुलरी ऐगे बसंतै की पारी।
बंण-बोटन फुटी गई पूङा
कैरू-किल्मोड़ी कांन मौलीणा
हरिया सार में पिंघलो दैंणा
हुलरि ऐगे बसंतै की परी।
सुर-सुर हवा पड़ी फगुने की
ठुम-ठुम बण परी नाचण फैगे
फर-फर उड़ो बसंती आंचल
सुर-बुर ही में कुरकुताली लैगे

फिर आयी वर्षा ऋतु

फिर आयी वर्षा ऋतु लाई नव जीवन जल धार।
कृषि प्रधान भारत में उजड़े फिर कितने घर बार?
कितने जनगण गाड़ बग गये?
कितने गौं-घर घाट लग गये?
कितने भगीरथों के सर से गुजरी गंगा धार?
तुम क्या जानो तुम तो ठहरे भारत की सरकार
कि हमरे बच्चे सोये चार।
उन्तीस जून सन् चौरासी की रात, शुक्र था वार
जबकि गरमपानी में हमरे बच्चे सोये चार।
किसकी करनी? किसकी भरनी?
किस मय्या की गोद उजड़नी?
बाप बने लाचार, देखते दुनिया का व्यवहार
कि हमरे बच्चे सोये चार।
अजी बिजीनिस टॉप रहेगा आलू-रैता खूब बिकेगा,
चोखा कारोबार, रुकी हैं इतनी मोटर-कार
कि हमरे बच्चे सोये चार।
कौन बड़ी यह बात हो गई? कुछ ज्यादा बरसात हो गई,
कुल्ल मरे हैं चार, मचाते खाली हा हा कार।
कि हमरे बच्चे सोये चार।
दिल्ली-लखनौ को क्या लेना, उनको वक्त कहां है इतना,
उनके काम हजार, वो ठहरे देश के ठेकेदार,
कि हमरे बच्चे साये चार।
वह तो नैनीताल जिला है, जहां कि भूस्खलन हुआ है,
वो देखेंगे यार, प्रशासन जिले का जिम्मेदार,
कि हमरे बच्चे सोये चार।
पुलिस/प्रशासन चुस्त हो गये सब हालात दुरुस्त हो गये,
रुपये मिले हजार, हमारी धन्य-धन्य सरकार।
कि हमरे बच्चे सोये चार।
दुर्घटना क्या घटनी थी जी, आमद-रफ्त बढ़ी लोगों की,
दौड़ीं मोटर-कार कि पहुंचे नेताजी इस बार,
दिया इक बोरी गेंहू, साथ नोट बांटे दो धारीदार।
चलाया वोटों का व्यौपार, कि हमरे बच्चे सोये चार।
ये रकमें बच्चे न जनेंगी
इमादादें कोखें न भरेंगी,
सोचो तो इक बार कौन इस सबका जिम्मेदार?
करें हम ठीक कहां पर वार, मिले जो इन सबसे निस्तार।
कि हमरे बच्चे सोये चार।
फिर आयी वर्षा ऋतु बरसाती जीवन जल धार।
कृषि प्रधान भारत से पूछो क्या बीती इस बार ?

(गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ की 1984 में लिखी यह कविता आज भी मौजूद है। राज्य बना सरकारें बदलीं मगर पहाड़ के हालात नहीं। )

girda poem

दिल लगाने में वक्त लगता है

रोशनी की फुलझड़ी थी, मैं ना था
चांद – तारों की लड़ी थी, मैं ना था
जिस क्षितिज पर में खड़ा, तुम न थे
जिस क्षितिज पर तुम खड़े थे , मैं न था
तालाब लबालब भरा और डूबता हूं मैं
गो मेरे कनारे मैं पे बंधी कश्तियां बहुत
तेरे करीब आने का मौका कहां लगा
देखी हैं हमने दूर से नजदीकियां बहुत
दिल लगाने में वक्त लगता है
डूब जाने में वक्त लगता है
वक्त जाने में कुछ नहीं लगता
वक्त आने में वक्त लगता है
दिल दिखाने में वक्त लगता है
फिर छिपाने में वक्त लगता है
दिल दुखाने में कुछ नहीं लगता
दर्द जाने में वक्त लगता है। 

है किसका अधिकार नदी पर

चलो नदी तट वार चलो रे
चलो नदी तट पार चलो रे,करें यात्रा नदियों की
नदी वार तट पार चलो रे,करें यात्रा नदियों की

इन नदियों के अगल-बगल ही
जीवन का विस्तार,चलो रे करें यात्रा नदियों की

आज इन्हीं नदियों के ऊपर
पड़ी है मारामार, चलो रे करें यात्रा नदियों की

टुकड़ा-टुकड़ा नदी बिक रही
बूँद-बूँद जल भर, चलो रे करें यात्रा नदियों की

गाँव हमारे, नदी किनारे
सूखा कंठ हमारा, चलो रे करें यात्रा नदियों की

जल में बोतल,बोतल में जल
प्यासा पर संसार, चलो रे करें यात्रा नदियों की

सूखा गीला बादर-बिजुली
सबकी हम पर मार, चलो रे करें यात्रा नदियों की

प्रश्न यही कि नदी पर पहला
किसका है अधिकार, चलो रे करें यात्रा नदियों की

नहीं किसी की नदी मौरूसी
हम पहले हकदार, चलो रे करें यात्रा नदियों की

बहता पानी,चलता जीवन
थमा कि हाहाकार, चलो रे करें यात्रा नदियों की

यह थे गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ के कुछ प्रमुख कवितायें। आशा है ये सभी कवितायें पाठकों को न सिर्फ़ साहित्यिक आनंद देंगी, बल्कि समाज और जनसंघर्षों की सच्चाई को भी समझने की प्रेरणा देंगी। गिर्दा की कविताएँ केवल शब्द नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शन हैं।

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