उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में अनेक पर्व और त्योहार समाहित हैं, जो न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक हैं, बल्कि सामाजिक एकजुटता, पारिवारिक संबंधों और लोक परंपराओं की जीवंत झलक भी प्रस्तुत करते हैं। कुमाऊं अंचल का ऐसा ही एक पर्व है – ‘बिरुड़ पंचमी’, जो भाद्रपद माह की शुक्ल पंचमी को विशेष रूप से महिलाओं द्वारा श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाता है।
बिरुड़ पंचमी का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
बिरुड़ पंचमी मुख्यतः गौरा माता के मायके आगमन की खुशी में मनाई जाती है। यह पर्व विवाह के बाद की उस सांस्कृतिक परंपरा से जुड़ा है, जिसमें गौरा (पार्वती) अपने मायके आती हैं और उनके स्वागत में बेटियों और बहनों द्वारा पूजा-पाठ और उत्सव मनाया जाता है। इस पर्व की विशेषता इसकी सामूहिकता, सजग लोक आस्था, और महिलाओं की सक्रिय भागीदारी है।
पर्व की परंपराएं और पूजा विधि
बिरुड़ पंचमी की पूर्व संध्या पर महिलाएं विशेष तैयारियां करती हैं। घरों में दो विशेष पोटलियां (गठरी) बनाई जाती हैं, जिनमें रखे जाते हैं:
- एक मुट्ठी गेहूं
- हल्दी की गांठ
- एक अनार (दाड़िम)
- पंचरत्न (छोटे सिक्के)
इन पोटलियों को कपड़े में बांधकर ऊपर से 8 या 11 दूब घास रखी जाती हैं। फिर इन्हें पानी से भरे बर्तन में डालकर घर के मंदिर में रख दिया जाता है। यह परम्परा पांच या 7 प्रकार के अनाज को गेहूं, मक्का, चना, मटर, कल्यों, ग्रूस, गहत को तांबे या पीतल के पात्र में भिगोकर भी निभायी जाती है।
बिरुड़ पंचमी के दिन महिलाएं व्रत रखती हैं और मोहल्ले या गाँव की किसी एक महिला के घर सामूहिक पूजा के लिए एकत्र होती हैं। वे डोर (रक्षासूत्र) को इन पोटलियों और बर्तन के ऊपर रखकर पूजा करती हैं और फिर बाएं हाथ में यह डोर बांधती हैं।
दुर्बाष्टमी और दुबड़ा की परंपरा
बिरुड़ पंचमी के बाद आता है दुर्बाष्टमी, जिसे ‘सातों-आठों’ के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन ननदें (कन्याएं) मंदिर से पोटलियां चुराकर घर में छिपा देती हैं। फिर भाभियाँ खोज कर उन पोटलियों को ढूंढती हैं और हँसी-मजाक और परस्पर स्नेह के भाव से कहती हैं – “हीरा मोती ले आई हूँ।” यह दृश्य पारिवारिक आत्मीयता और महिला-समूह की सौहार्दपूर्ण परंपरा को दर्शाता है।
इसके बाद महिलाएं मंगल गीत गाते हुए पोटलियों को खोलती हैं और भीगे हुए गेहूं, चने (जिसे ‘हीरा मोती’ कहा जाता है) व आटा भगवान शिव और गौरा माता को अर्पित करती हैं। फिर वे गले में दुबड़ा (दूब घास से बना हार) पहनती हैं और अपने परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।
आधुनिकता और बदलती परंपरा
हालांकि पहले यह पर्व सामूहिक रूप से मोहल्लों और गांवों में मनाया जाता था, लेकिन आजकल व्यस्त जीवनशैली और आधुनिकता के चलते महिलाएं इसे घरों में ही सीमित दायरे में मना रही हैं। इसके बावजूद इस पर्व का भाव और महत्व आज भी कुमाऊं की लोक-चेतना में गहराई से बसा हुआ है।
Birud Panchami 2025
इस वर्ष बिरुड़ पंचमी 28 अगस्त 2025 (गुरुवार) को मनाई जाएगी। यह दिन कुमाऊं की पारंपरिक विरासत को पुनः जीने और साझा करने का अवसर है। 30 अगस्त को सातों पर्व और 31 अगस्त को आठों पर्व मनाया जायेगा।
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संक्षेप में, बिरुड़ पंचमी न केवल एक धार्मिक व्रत है, बल्कि यह कुमाऊं की महिलाओं की आस्था, पारिवारिक जुड़ाव और सांस्कृतिक आत्मा की अभिव्यक्ति भी है। यह पर्व हमें सिखाता है कि लोक परंपराएं समय के साथ बदल सकती हैं, लेकिन उनका भाव, मूल्य और सामाजिक महत्व अटल रहता है।