इगास बग्वाल: उत्तराखंड की ‘बूढ़ी दिवाली’ क्यों और कैसे मनाते हैं | Igas 2025

On: Saturday, October 25, 2025 6:40 PM
इगास बग्वाल

इगास बग्वाल, जिसे बूढ़ी दिवाली के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखंड, विशेष रूप से गढ़वाल क्षेत्र का एक प्रमुख और अनूठा पारंपरिक त्योहार है। यह पर्व पूरे देश में मनाई जाने वाली दीपावली के ठीक 11 दिन बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है। ‘इगास’ शब्द गढ़वाली भाषा में ‘एकादशी’ के लिए प्रयुक्त होता है, और इस प्रकार इस पर्व का नाम ‘इगास बग्वाल’ पड़ा।

इगास बग्वाल का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व

इगास बग्वाल मनाने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं और लोक कथाएं प्रचलित हैं, जो इसे एक वीर पर्व और सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक बनाती हैं:

  1. श्री राम के आगमन की देरी से खबर: सबसे प्रचलित कथा के अनुसार, जब भगवान राम रावण पर विजय प्राप्त करके अयोध्या लौटे और दीपावली मनाई गई, तब इसकी सूचना उत्तराखंड के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों तक पहुंचने में 11 दिन का समय लग गया। जब यह शुभ समाचार 11वें दिन मिला, तो यहाँ के निवासियों ने अपनी खुशी प्रकट करते हुए उस दिन दीये जलाए और जश्न मनाया।
  2. वीर माधो सिंह भंडारी की वीरता: एक अन्य महत्वपूर्ण किंवदंती के अनुसार, गढ़वाल के वीर सेनापति माधो सिंह भंडारी एक युद्ध (माना जाता है कि तिब्बत युद्ध) में विजयी होकर दीपावली के बाद अपने सैनिकों के साथ 11वें दिन गांव लौटे थे। उनकी सुरक्षित वापसी और जीत की खुशी में लोगों ने दिवाली मनाई। इसलिए यह पर्व शौर्य और सैनिकों के सम्मान से भी जुड़ा है।

इगास पर्व की विशेष परंपराएं और आकर्षण

इगास बग्वाल (Igas Bagwal) का उत्सव पारंपरिक रीति-रिवाजों और सामूहिक उल्लास से भरा होता है, जिसमें आतिशबाजी के बजाय प्रकृति से जुड़े तत्वों का प्रयोग होता है:

  1. भैलो (Bhaillo) खेलने की परंपरा: इगास का सबसे बड़ा आकर्षण भैलो खेल है। ‘भैलो’ चीड़, देवदार, या भीमल की सूखी लकड़ियों के छोटे गठ्ठर होते हैं, जिन्हें रस्सी से बांधा जाता है। शाम को इन गठ्ठरों में आग लगाकर ग्रामीण उन्हें रस्सी से पकड़कर चारों ओर घुमाते हैं। आग की लपटों से घुमाया जाने वाला यह भैलो अंधेरे में उजाले का प्रतीक माना जाता है और सामूहिक एकता व शौर्य को दर्शाता है। यह खेल इस पर्व का मुख्य अंग है।
  2. गोवंश पूजा और पारंपरिक व्यंजन: इगास के दिन गायों और बैलों की विशेष पूजा की जाती है। गायों को परिवार का सदस्य मानकर उन्हें पारंपरिक पकवान खिलाए जाते हैं। उनके खुरों को धोया जाता है, सींगों को तेल मलकर चमकाया जाता है।  इस दिन घरों में पारंपरिक पकवान बनाए जाते हैं, जिनमें झंगोरा की खीर, मंडुवे की बाड़ी और स्वाली, भूड़ा आदि प्रमुख हैं।
  3. लोक नृत्य और गीत: पूरे पर्वतीय क्षेत्र में ढोल-दमाऊ की थाप पर पूरी रात लोक नृत्य और गीत-संगीत थड़िया, चौफुला, झुमैलो का आयोजन होता है। ग्रामीण एक साथ मिलकर जश्न मनाते हैं, जो सामुदायिक भावना को मजबूत करता है। लोग ‘भैलो रे भैलो,’ ‘काखड़ी को रैलू’ और ‘उज्यालू आलो अंधेरो भगलू’ जैसे लोक गीत गाते हैं। 

इगास बग्वाल का वर्तमान स्वरूप

पिछले कुछ वर्षों में, उत्तराखंड सरकार और स्थानीय सांस्कृतिक संगठनों के प्रयासों से इगास बग्वाल के प्रति जागरूकता बढ़ी है। उत्तराखंड सरकार ने इस पर्व पर सार्वजनिक अवकाश भी घोषित किया है, जिससे यह लोकपर्व अब न केवल पहाड़ी क्षेत्रों, बल्कि देश-विदेश में रह रहे प्रवासी उत्तराखंडियों द्वारा भी धूमधाम से मनाया जाने लगा है।

कुमाऊं की बूढ़ी दिवाली 

मानसखंड यानी कुमाऊं में इस त्यौहार को ‘बूढ़ी दिवाली‘ के नाम से जानते हैं। इस दिन दुःख, दरिद्र, रोग- शोक के प्रतीक भुइयां यानी ‘बुढ़ी’ को घर से बाहर निकालने की परम्परा है। जिसमें रिंगाल के सुप्प (सुप) को लाल मिट्टी या गेरुवे से पुताई कर अग्र भाग में विस्वार से लक्ष्मी नारायण का चित्र अंकित किया जाता है। वहीं सुप के पृष्ठ में भुइयां को चित्रित किया जाता है। ब्रह्मुहुर्त में अखरोट या दाड़िम रखकर गन्ने से पीटते हुए भुइयां को घर से बाहर किया जाता है। तुलसी श्रृंगार किया जाता है। पारम्परिक पकवानों को पंच कन्याओं को खिलाने के बाद सभी बैठ कर पकवानों का आनंद लेते हैं।

बूढ़ी दिवाली पर लोग शाम को अपने घरों की देहरी पर दीपक जलाते हैं। यदि हिन्दू धार्मिक दृष्टि से देखें तो आज के दिन हरिबोधिनी एकादशी का पर्व होता है। मान्यता है आज के दिन भगवान विष्णु अपनी निंद्रा से जागते हैं। 

इगास बग्वाल या बूढ़ी दिवाली को ‘देव दीपावली’ के नाम से भी जानते हैं। माना जाता है देवताओं ने देवलोक में आज के दिन दीपोत्सव बनाया था। 

इगास बग्वाल कब है : 

इस वर्ष यानी 2025 में Igas Bagwal दिनांक 01 नवंबर 2025 को है। हर वर्ष की भांति इस बार भी यह त्योहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जायेगा। उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी कैलेंडर के अनुसार इस दिन पूरे प्रदेश के सरकारी संस्थानों, शिक्षण संस्थानों में अवकाश रहेगा। 

निष्कर्ष:

इगास बग्वाल केवल एक त्योहार नहीं है, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति, वीरता की गाथाओं और प्रकृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है। यह पर्व युवा पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ता है और दीपावली के 11 दिन बाद भी प्रकाश, उल्लास और सामुदायिक सौहार्द का संदेश देता है।

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