हरेला त्योहार 2025, जानिए तिथि, इसके महत्व और मान्यताएं।

On: Tuesday, July 1, 2025 9:37 PM
Harela Festival 2025

पर्यावरणीय असंतुलन आज विश्वभर में चिंता का विषय बन चुका है, लेकिन उत्तराखंड जैसी देवभूमि ने सदियों पहले ही इस दिशा में अपनी सांस्कृतिक चेतना से एक मिसाल कायम कर दी थी। यहां मनाया जाने वाला हरेला पर्व केवल एक पारंपरिक त्यौहार नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ गहरा जुड़ाव और पर्यावरण संरक्षण का जीता-जागता उदाहरण है। यह पर्व मुख्यतः कुमाऊँ में मनाया जाता है। यहाँ मान्यता है जिस घर में जितना अच्छा हरेला उगेगा उतनी ही अच्छी फसल की पैदावार होगी। 

Harela Festival 2025 date : इस वर्ष उत्तराखंड में हरेला त्योहार बुधवार, दिनांक 16 जुलाई 2025 को मनाया जायेगा। हिन्दू पंचांग के अनुसार इस दिन सावन महीने की संक्रांति है, जिसे कर्क संक्रांति के नाम से जाना जाता है। इस पर्व की शुरुआत हरेला बुवाई के साथ दिनांक 6 एवं 7 जुलाई से हो जाएगी। 

प्रकृति के प्रति श्रद्धा का पर्व: हरेला

हरेला (Harela) पर्व उत्तराखंड, विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में श्रावण माह की संक्रांति को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह पर्व हरियाली, कृषि, पशुपालन और प्रकृति संरक्षण से जुड़ा हुआ है। हरेला शब्द ही “हरियाली” से आता है, और इस पर्व का उद्देश्य है- भूमि को हरा-भरा रखना, पेड़ों को लगाना और पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाना।

हरेला की शुरुआत

हरेला पर्व की शुरुआत नौ दिन पूर्व होती है, जब घर के मंदिर स्थल पर रिंगाल की टोकरी, तिमुला की पत्तियों से बने पुढ़े में मिट्टी भरकर सात प्रकार के अनाज-गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, गहत, सरसों व चना बोए जाते हैं। इन्हें हर दिन पूजा के समय सींचा जाता है, और नौवें दिन इनकी गुड़ाई कर दसवें दिन कटाई की जाती है। इस प्रक्रिया को ‘हरेला पतीसना’ कहा जाता है।

पत्पश्चात टोकरी से पतीसे हुए हरेले के तिनड़ों से घर की वरिष्ठ महिला परिवार के प्रत्येक सदस्य को हरेला शिरोधार्य कराती है और आशीर्वाद स्वरूप यह विशेष पारंपरिक शुभ आशीष देती हैं-

“जी रया, जागि रया…
दुब जस पगुर जया,
धरती जस चाकव, अगास जदु उच्च है जया,
हिमालय में ह्यू छन तक,
गंगा में पाणी छन तक,
तुमि जी रया, जागि रया।”

इसका आशय है: जीवन और जागरूकता बनी रहे, परिवार दूब की तरह पनपे, धरती जैसा विस्तार और आकाश जैसी ऊंचाई मिले, हिमालय में जब तक बर्फ है और गंगा में पानी है, तब तक जीवन में निरंतरता बनी रहे।

हरेला का महत्व 

  1. बीजों की परख: इस पर्व की वैज्ञानिक समझ कमाल की है। अधिकांश गृहस्थ 5-7 प्रकार के बीज जैसे गेहूँ, जौ, मक्का, सरसों आदि को रिंगाल, तिमले की पत्तियों के पुढें या वर्तमान में प्लास्टिक की छोटी टोकरी में बोते हैं और नियमित जलार्पण कर हरेला उगाते हैं। करीब 9-10 दिन बाद जब ये हरेला (अंकुर) तैयार हो जाता है, तो किसानों के लिए यह मिट्टी उर्वरकता और बीजों की गुणवत्ता की पूर्व-परीक्षा का अवसर होता है।
  2. पारिवारिक संस्कार : हरेला को पूर्ण विधि-विधान और नियम पूर्वक बोया जाता है। फिर समय-समय पर सिंचाई और नियत तिथि को गुड़ाई की जाती है।फिर सावन माह की संक्रांति के दिन इस ‘हरेले’ को काट कर पूजा के लिए रखते हैं। इस हरेले को घर-परिवार के सिर पर रखकर सभी को आशीर्वचन दिया जाता है, इस रीति से हमारे पारवारिक संस्कार प्रगाढ़ होते हैं।
  3. धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव : हरेला पर्व धार्मिक दृष्टि से भी अनूठा है। इस पर्व के दौरान मिट्टी के डिकारे बनाए जाते हैं। शिव-पार्वती के परिवार की डिकारे (मूर्तियाँ) गढ़े जाते हैं, जिन्हें पारम्परिक रूप से पूजित किया जाता है। इस दौरान ‘जी रया, जागि रया…’ जैसे आशीर्वचन नयी पीढ़ी को उत्तराखण्ड की समृद्ध संस्कृति से जोड़ती है। 

घर-परिवार के साथ पर्यावरण का उत्सव 

हरेले के दिन घरों में विशेष पकवान जैसे बेडू पूड़ी, हलवा, खीर, दही-केले आदि बनाए जाते हैं और पूरे परिवार के साथ मिलकर इन्हें खाया जाता है। हरेला पर्व का सबसे बड़ा संदेश यह है कि हम पेड़ लगाएं और उन्हें संजोएं। इस दिन खासकर फलदार, छायादार और चारा-पत्ती देने वाले पौधे रोपे जाते हैं। कई लोग पुराने पेड़ों की टहनियों को भी रोपकर नए पेड़ों को जन्म देने की कोशिश करते हैं। यह उन पेड़ों के लिए किया जाता है, जिसकी पौध उगाना कठिन होता है। 

सदियों पुरानी परंपरा, आज का संदेश

उत्तराखंड में यह वृक्षारोपण की परंपरा सदियों पुरानी है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में सरकार और समाज के संयुक्त प्रयासों से यह पर्व अब केवल पारिवारिक या क्षेत्रीय नहीं रहा, बल्कि राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय अभियान का रूप ले चुका है। सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं इस दिन बड़े स्तर पर वृक्षारोपण कर रहीं हैं। यही कारण है कि आज हरेला पर्व की चर्चा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी हो रही है।

क्यों जरूरी है हरेला को अपनाना?

जलवायु परिवर्तन, वन कटान, और प्रदूषण के इस युग में हरेला जैसे पर्व प्रकृति की ओर लौटने का संदेश देते हैं। यदि भारत के अन्य राज्य भी उत्तराखंड की इस परंपरा को अपनाएं और हर वर्ष एक दिन वृक्षारोपण को समर्पित करें, तो यह हमारे पर्यावरण को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक मजबूत कदम होगा।

हरेला पर्व न केवल उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक प्रेरक प्रयास भी है। जब तक हिमालय में बर्फ है और गंगा में जल, तब तक यह पर्व हमें प्रकृति से जुड़े रहने और उसकी रक्षा करने की प्रेरणा देता रहेगा।

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हरेला के दिन उत्तराखंड में क्यों करते हैं वृक्षारोपण ?

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